मनु के साथ फ़िर से एक सफ़र की शुरुआत। मनु ने अपने दोस्तों के साथ अपने सफ़र की शुरुआत इस बार जमशेदपुर से की। जमशेदपुर! टाटाओं के द्वारा स्थापित, पोषित और संरक्षित झारखंड राज्य का एक खूबसूरत औधोगिक शहर। पुरे विश्व में विख्यात। शहर के लगभग हर चीज़ पर टाटा के नाम की मुहर, टाटा का प्रभाव,टाटा की पहचान। पुरे शहर में अगर कुछ है तो बस और बस टाटा।
जहां भी इस तरह के शहर हैं वो आपको एक टीस के साथ हक़ीक़त बयां कर जाते हैं। आख़िर, हम कहां मिस कर जाते हैं। कहां हम भूल कर बैठते हैं। ऐसा लगता है उस तरह के माहौल मे हम, हम नही कोई और हो जाते हैं। फ़िलहाल मुझे अपने लिए कोई माकूल शब्द नही मिल रहा है। खैर! आप इंतज़ार करें। मुझे तो इंतज़ार रहेगा ही।
चलिए, इस खूबसूरत सफ़र की शुरुआत करते हैं। हमारा पड़ाव जमशेदपुर से चाईबासा होते हुए झारखंड और उड़ीसा की सीमा पर स्थित एक बहुत ही खूबसूरत जगह “किरीबुरू” और “मेघाहातुबुरू” है। आप इन्हें जुड़वां कह सकते हैं। पुरा का पुरा इलाका लौह अयस्क के लिए विख्यात। सिर्फ यही नहीं पुरा पश्चिम सिंहभूम लौह अयस्क के लिए विश्व विख्यात।
यहां सेल (SAIL) की अपनी लौह अयस्क की खदानें हैं। वैसे आस-पास के क्षेत्रों में और भी छोटी बड़ी सरकारी और निजी खदानें हैं पर, सेल ने यहां माइनिंग के साथ ही साथ अपने परिजनों के लिए एक खूबसूरत सी दुनिया ही बसा रखी है। मैंने यहां रह रहे लोगों के लिए ” सेल के परिजनों ” शब्द का इस्तेमाल किया है। वाकई ये सभी ‘ सेल परिवार’ के अहम सदस्य हैं। अगर आपने यहां रहने और काम करने के दौरान अपने आप को सेल परिवार का सदस्य नही समझा तो इस जंगल में रह पाना आपके लिए मुश्किल ही नही असंभव होगा। जमशेदपुर से कोई 160 किलोमीटर की दूरी पर पश्चिम सिंहभूम के मुख्यालय चाईबासा से लगभग 100 किलोमीटर दूर स्थित एक बहुत ही छोटा सा कस्बानूमा जगह। लौह अयस्क की माइनिंग के लिए प्रसिद्ध एक बहुत ही मनोरम जगह। वैसे तो झारखंड की प्राकृतिक खूबसूरती का अहसास तो जमशेदपुर से निकलते ही हो जाता है। जैसे जैसे आप आगे बढ़ते जाते हैं आपकी आंखें कैमरे में बदल जाती हैं।
सभी को अपनी आंखों मे क़ैद करने की कोशिश। चाहे वहां के लोगों का जनजीवन हो या फ़िर प्राकृतिक नज़ारा। पर, ऐसा भला कहां संभव है? कैमरे और आंखों के बीच एक कशमकश जारी। पर जैसे ही आप आख़िरी, लगभग बीस किलोमीटर की दूरी की शुरुआत सुरम्य वादियों और छोटे छोटे पहाड़ों के बीच से करते हैं । दिल और दिमाग जैसे कहीं खो सा जाता है। पुरी इन्द्रियां सिर्फ और सिर्फ एक ही जगह केन्द्रित हो जाती हैं। आप यहां की सुरम्य और खूबसूरत वादियों के बीच अपने को छोड़ देते हैं। चलिए अब आप मेघाहाताबुरू पहुंच गए। किरीबुरू — किरी मतलब हाथी और बुरू मतलब जंगल। मेघाहाताबुरू — मेघ मतलब बादल, हाता मतलब गांव और बुरू मतलब जंगल। हमेशा बादलों से आच्छादित जंगलों के बीच एक गांव। अब मुझे नही लगता है कि इनके नाम की सार्थकता को बताने की जरूरत है।
सारंडा मतलब हाथी। सारंडा के घने जंगलों और सारंडा के ही लगभग सात सौ छोटी बड़ी पहाड़ियों से आच्छादित यह जगह खूबसूरती की मिसाल है। कभी कुछ कारणों से सारंडा का इलाका थोड़ा बदनाम था पर, आज़ वैसी बात नही।यहां के सूर्यास्त के दृश्यों का आनंद उठाने लोग दूर-दूर से आते हैं। कुछ विहंगम दृश्य सूर्यास्त के, जिसे मेरी नज़रों से कैमरे ने भी कैद किया। नज़रें हालांकि हटने का नाम नहीं ले रही थीं। पर, सूर्य को तो अस्त होना ही था कहीं और उदय होने के लिए।
यही तो जिंदगी और उसका फ़लसफ़ा है।
मेघाहाताबुरू के प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद लेने के बाद मेघाहाताबुरू में अब हम लोगों ने वहां के अपने स्थानीय संपर्क के लोगों से विख्यात लौह अयस्क की खदानों को देखने की ख्वाहिश ज़ाहिर किया।
किरीबुरू आयरन ओर माइन्स ( KIOM) और मेघाहाताबुरू आयरन ओर माइन्स ( MIOM) । जी हां! यही नाम है उन खदानों का।
बिना किसी स्थानीय और वह भी सेल से जुड़े हुए संपर्क के लोगों के आप खदानों को नहीं देख सकते हैं। पुरी की पुरी खदानें केन्द्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल के हवाले है। आखिरकार सुरक्षा और संरक्षा का सवाल है। हमलोगों के वहां जाने के लिए पास बनवाया गया। खदान में जाने वाली गाड़ी और वहीं के ड्राइवर के साथ चल पड़े हम सभी लौह अयस्क की खदानों को देखने के लिए। आख़िर कैसे खदानों से लौह अयस्क निकलता है और विभिन्न चरणों में processing होने के बाद फाइन और लंप इन दो रूपों में रेलगाड़ियों के द्वारा इन्हें कारखानों तक पहुंचाया जाता है। एक अलग ही अनुभव रहा। शब्दों में शायद बयां नही किया जा सकता है। बड़ी बड़ी विशालकाय मशीनों के बीच हम बहुत छोटे नज़र आ रहे थे। आमतौर पर वैसी मशीनें और वहां पर काम पर लगी गाड़ियां देख पाना संभव नहीं। जंगल के भीतर एक अलग ही दुनिया। उन सबों के बीच एक अलहदा ही अनुभव।
मेघाहाताबुरू से लौटते हुए हम लोगों की सवारी कुछ देर के लिए जगन्नाथ पुर के पास “सेरेंगसिया घाटी” में रुकी। घाटी की शुरुआत में ही वनदेवी की एक आराध्य स्थल चिन्हित है जहां घाटी पार करने से पहले सभी ख़ासकर वाहन चालक पत्ते चढ़ाकर अपनी सकुशल यात्रा की कामना करते हैं । ऐसी मान्यता है कि वनदेवी की आराधना करने से उनकी आगे की यात्रा सुखद एवं मंगलमय होती है।हम सभी ने भी वहां गाड़ी रोककर वहां पत्ते चढ़ाकर पूजा की। वैसे अमुमन हर जगह जंगलों में घाटी की शुरुआत में वनदेवी या फ़िर वन देवता की पूजा की जाती है। खैर! हम फ़िलहाल बातें कर रहे हैं सेरेंगसिया घाटी और उससे जुड़ी हुई विरासत की। हालांकि इसे इतिहास में बहुत बड़ा स्थान नही दिया गया है पर, इसके महत्व को और इसकी सच्चाई को कैसे नकारा जा सकता है।
ब्रिटिश हुकूमत के ख़िलाफ़ सन्1937 में सेरेंगसिया घाटी में कोल विद्रोह हुआ था। इस विद्रोह का नेतृत्व राजाबासा निवासी पोटो हो ने किया था। पश्चिम सिंहभूम जिले में हो जनजाति का बाहुल्य है। पोटो हो के नेतृत्व में आदिवासी विद्रोहियों ने बड़ी ही बहादुरी के साथ अपने परंपरागत हथियार तीर धनुष के साथ आधुनिक हथियारों से लैस अंग्रेज़ सैनिकों के साथ युद्ध किया था। इस युद्ध में करीब 26 आदिवासी कोल लड़ाके शहीद हुए थे। आदिवासियों ने इस लड़ाई में अपने सरदार पोटो हो के नेतृत्व में अंग्रेजों को बुरी तरीके से हराया था । हालांकि, उन्हें इसकी बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी थी। पोटो हो को अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तार कर जगन्नाथपुर में एक पीपल के पेड़ पर लटका कर सार्वजनिक रूप से फांसी दे दी गई थी।इन्हीं शहीदों की याद में सेरेंगसिया घाटी में कोल विद्रोह के नायकों पोटो हो, बेराई हो, पुंडुवा हो, बडाए हो, नारा हो, देवी हो, वो सुगुनी हो के स्मारक बनाए गए हैं। आज़ भी वहां हर वर्ष दो फ़रवरी को शहीदों की याद में एक समारोह आयोजित कर आदिवासी समाज परंपरागत परिधानों में, परंपरागत तरीकों से पूजा कर भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है।
जमशेदपुर से चाईबासा होते हुए किरीबुरू और मेघाहातुबुरू जाने और आने के क्रम में हमलोगों ने रास्ते में जगह-जगह पर आदिवासी समाज की महिलाओं को बड़े बड़े अल्यूमिनियम या फिर मिट्टी के बर्तनों में कुछ पेय पदार्थ बेचते हुए देखा। जहां वे महिलाएं इसे बेच रही थीं कुछ लोग बड़े ही चाव से कटोरे में उस पेय पदार्थ को पीते हुए पाए गए। हमारे साथ, हमारे जो मित्र थे जिनके सौजन्य से हम इस ट्रिप पर थे वे आदिवासी समाज से ही आते हैं। उन्होंने बताया कि यह ” हंडिया” है जो हमारे समाज का एक अभिन्न हिस्सा है। इसे हम सभी स्थानीय भाषा में ” डियांग” कहते हैं। आप हमारे समाज में चाहे कोई भी उत्सव मनाया जा रहा हो। भले ही वह जीवन से जुड़ा हुआ हो अथवा मृत्यु से। ख़ुशी का माहौल हो या फ़िर ग़म का । हंडिया न हो इसकी कल्पना भी नही की जा सकती है। ऐसा माना जाता है कि आप आदिवासी समाज को चाहे कितना भी अच्छा भोजन परोस दें पर , यदि हंडिया नहीं तो कुछ भी नहीं। सब बेकार है। मिथ्या है सब कुछ।
आइए हम जानते हैं कि आखिर हंडिया क्या है और इसके बनाने की विधि और प्रकिया क्या है।हंडिया या जिसे स्थानीय लोग डियांग कहते हैं दरअसल चावल से बना हुआ एक पेय पदार्थ है। इसे बनाने के लिए चावल को पानी की उचित मात्रा के साथ पकाते हैं। बने हुए चावल के ‘भात’ को एक चटाई पर रखकर उसे बिल्कुल ठंडा होने तक छोड़ देते हैं। ठंडा होने के बाद उसमें बिल्कुल अच्छे तरीके से विभिन्न प्रकार के जड़ी बूटियों के मिश्रण को मिलाया जाता है। इस जड़ी बूटी के मिश्रण को वे लोग ” रानू ” के नाम से जानते हैं।
कौन सी जड़ी बूटी वे लोग मिलाते हैं यह बहुत हद तक अभी निकल कर बाहर नही आ पाया है। जान कर भी हमलोग क्या कर लेंगे। जंगल की चीजें हैं। भटकते रह जाएंगे। ऐसी कोई चीज़ तो है नहीं कि पंसारी के यहां से खरीदा जा सके।
भात और रानू के मिश्रण को दो तीन दिन छोड़ देने से फर्मेंटेशन की प्रक्रिया से जो सामान बनता है उसे “रासी ” कहते हैं। यह बिल्कुल ही प्योर है। इसे छानकर थोड़ा इसमें पानी मिलाकर बने पेय पदार्थ को हंडिया कहते हैं। मट्ठे सा थोड़ा तीख़ा स्वाद। ज़्यादा दिन तक फर्मेंटेशन की प्रक्रिया से गुजरने पर यह थोड़ा कड़ा और नशे का काम करता है। आदिवासी समाज इसे अपने खाने के काम में लेता है। दो कटोरा हंडिया पीकर ही वो काम पर निकलता है। उनके लिए हंडिया उनके जीवन का अभिन्न अंग है। उनके दिनचर्या का हिस्सा है। भले ही हम “दिककू” इसके लिए कुछ भी कह लें।
मनु कहिन