Manu Kahin

मोहन जी का चिल्ला

मोहन प्रसाद! 

जी हां, यही तो नाम बताया था उन्होंने अपना।

पटना की हृदय स्थली मौर्या लोक के पूर्वी गेट पर लगभग 20 सालों से अपना खोमचा लगा रहे हैं। 

पटना का मौर्या लोक का यह इलाका स्ट्रीट फूड के लिए पटना के मध्यमवर्गीय लोगों की स्वाभाविक पसंद की जगह है। दिनभर , यूं कहें देर रात तक यहां लोगों का मजमा लगा रहता है। लोग बाग़ अपने परिवार के साथ यहां आना पसंद करते हैं। 

मोहन जी का खोमचा  एक ऐसी जगह पर लगता है जहां अगर जब कभी anti encroachment अभियान चलाया जाए तो शायद उन्हें  पता भी  नहीं चलेगा कि यहां पर किसी भी प्रकार का अतिक्रमण भी है। उस जगह पर 2001 से ये जनाब कोलकात्ता का मशहूर मुंग दाल का चिल्ला और पनीर चिल्ला बेच रहे हैं। 

बड़े शौक़ से लोग यहां पर आते हैं और मोहन जी के हाथों की बनी हुई गर्मा गर्म चिल्ला साथ में दो तरह की चटनी एक लाल और एक हरी खाकर तृप्त हो जाते हैं। 

क्या बताऊं आजकल लोगों ने चटनियों को नाम से बुलाना बंद कर दिया है। अब धनिए और पुदीने की चटनी हरी चटनी हो गई है। इसी प्रकार लाल चटनी, सफ़ेद चटनी आदि।

बचपन में मां के हाथों का बना ” चितवा ” और ” छिलका ” कब कोलकात्ता जाकर ” चिल्ला” बन गया यादों में भी नहीं है। अब तो ” चितवा ” और ”  छिलका ” तो सिर्फ़ स्मृतियों में ही है। 

दोष बेचारे मोहन जी का नहीं है। वो तो अपना ” चिल्ला ” बेच अपने बाल बच्चों की परवरिश कर रहे हैं। अपने परिवार के लिए दो वक़्त की रोटी का जुगाड   कर रहे हैं। अपने बच्चों को एक बेहतर भविष्य देने की कोशिश कर रहे हैं। सुबह से शाम तक खड़े खड़े ही उनकी दुकान सजती है। एक बांस की बनी खोमची, एक छोटा सा स्टोव और चटनी रखने के लिए दो बर्तन। बस यही तो उनकी पूंजी है। बमुश्किल दिन भर की मेहनत के बाद दो जून की रोटी मयस्सर करवा रहे हैं अपने परिवार को। 

बच्चों को इस काम से दूर रख पढ़ा रहे हैं, इस उम्मीद में कि वे बड़े होकर उनके बुढ़ापे की लाठी बन सकें। अपने पैरों पर खड़े हो सकें।

दोष तो कहीं न कहीं हमारा ही है । हमें “चितवा” और “छिलका” अनपढ़ों और गंवारों की भाषा लगती है। इसलिए शायद अपना सिंघारा अब समोसा बन गया है। हम बड़े शौक़ से जोधपुर की प्रसिद्ध मावे की कचौड़ी का नाम लेते हैं। एक owe  वाली अनुभूति होती है।पर, बेचारा अपना चंद्रकला कहीं आसूं बहा रहा है। थोड़ा ध्यान दें। आगरे का पेठा बढ़िया है पर बेचारा अपना मुरब्बा कहां खो गया? शायद हम बदलाव के साथ , सामंजस्य नहीं बिठा पाए।

 बाहरी कलेवर बदलने से अंदर की चीजें नहीं बदला करती हैं मेरे दोस्त।

खैर! बदलाव तो वक़्त की सच्चाई है |

बदलाव की बयार पुरे विश्व में कुछ इस तरह से आई , हालात कुछ इस तरह से,इतनी तेजी से बदले कि मनु वक़्त ने थोड़ा सा भी वक़्त नहीं दिया समझने और सम्हलने का! 

बस सर झुका कर हम सभी उसकी बात मानते गए ! पर नहीं! अपनी संस्कृति अपनी धरोहर को आप यूं इस तरह से कैसे ख़त्म होने दे सकते हैं। लिट्टी आपकी कभी बाटी नही हो सकती है और ना ही बाटी लिट्टी। 

इस अंतर को समझने की जरूरत है। अपनी चीजों पर गर्व करें हम सभी। 

मनु कहिन 

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