Manu Kahin

विरासत और धरोहरों की समीक्षा नही हो सकती है। देशभक्ति धर्म से बहुत परे है। कोई तुलना ही नहीं है। आप उन लोगों की बातें कर रहे हो जो अब इस दुनिया में नहीं हैं। जिन्होंने देश के लिए जो किया वो अवर्णीय है।

किसी ने उन्हें प्रेरित नहीं किया था। हां ! देशभक्ति के जज्बे से जरूर प्रेरित थे वो।  उनकी समीक्षा कर रहे हो जिन्होंने नि: स्वार्थ देश के लिए, अपनी मिट्टी के लिए बिना कुछ सोचे-समझे अपनी जिंदगी दांव पर लगा दी। काला पानी और सेल्यूलर जेल, पोर्टब्लेयर के नाम से से ही जब आम लोगों का हाड़ कांप जाया करता था तब उन लोगों ने हंसते हुए वहां जाना पसंद किया। उन्हें वहां जाना पसंद था पर, गुलामी पसंद नहीं थी। ऐसे थे वो लोग।

कोई मतलब नहीं था उनका। उनके सामने भी बहुतेरे लोग थे। पर, जज़्बा जो उन्होंने दिखाया, क्या आपको लगता है वो समीक्षा करने के लायक है। 

हम तो एक छोटा सा थपेड़ा बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं। जिंदगी आगे पीछे घूमने लगती है। सोचने की बात है। मानसिक तौर पर वो कितने मजबूत होंगे।  वतन के लिए लड़ाई शारीरिक मजबूती से नहीं बल्कि दिमागी मजबूती से लड़ी जाती है। एक जज़्बा होता है। और हम कतई उस लायक नहीं कि उस जज्बे को समीक्षा कर सकें। धरोहर को हमेशा संजोकर रखा जाता है।नमन किया जाता है उसे। उंगलियां नहीं उठाई जाती।

 मनु कहिन

Share this article:
you may also like