कुछ लोग एक साथ इकट्ठे होकर एक दूसरे से बातें कर रहे थे। सामाजिक तौर पर दूरी की पूरी की पूरी व्यवस्था के साथ। हां, मास्क अब कहीं पीछे छूट गया था। भाई, कोरोना के समय में जो सबसे अहम बात थी, वो कि आप और हम सभी सामाजिक तौर पर दूरी के सिद्धांत को अक्षरशः पालन करते हुए आगे बढ़ें और दैनिक कार्यों को निपटाएं अगर आपको अपने आप से और अपने करीबियों से प्यार है तो!
आपकी समस्या अगर आपके अपने साथ खत्म हो जाती तो बात समझ में आती। पर, नहीं, यह तो आगे भी जारी रहने वाली है। अभी तुफान खत्म कहां हुआ है। बस, थोड़ा शान्त जरूर पड़ गया है।
खैर! बातों का सिलसिला शुरू हुआ। अमूमन हमारे देश में अगर क्रिकेट का खेल नहीं हो रहा है तो बातों की शुरुआत राजनीति से ही होती है।
क्रिकेट की बातें हम क्यूं करते हैं। अरे भाई, क्रिकेट हमारे यहां खेल नहीं धर्म है। खैर! हम राजनीति की बातें कर रहे थे। वहीं से शुरूआत करते हैं। राजनीति की बातें करते हुए हम सभी तब यह भूल जाते हैं कि हमने अपने अपने प्रतिनिधियों को चुनकर तो भेज ही रखा है संसद और विधानसभाओं में बातें करने के लिए। अपना पक्ष रखने के लिए। फिर हम क्यूं बातें करते हैं। समय है अपने पास तो क्या करें ? बातें ही तो होंगी। बातें हो रही थी और जब बातें हो रही होती हैं, तो लाज़मी है दो पक्षों का होना। हालांकि कुछ व्यक्ति तटस्थ होने की कोशिश में लगे रहते हैं। पर कब तक। कोई न कोई बात तो उन्हें भी हिट करती है। उन्हें भी झकझोरती है। पर, तटस्थ रहने की उनकी कोशिश अनवरत जारी रहती है। ऐसा लगता है कि वह अपनी राय सार्वजनिक नहीं करना चाहते हैं। खैर! अगर कर भी देंगे तो व्यवस्था पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। आपकी राय से वाकई देश की व्यवस्था पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला।
आप जब चीजों को समग्र रूप में देखेंगे तो पाएंगे कि बहस में समाज का कौन सा तबका भाग लेता है।
तथाकथित उच्च वर्ग! इस वर्ग को व्यवस्था से कोई फर्क नहीं पड़ता। व्यवस्था उनके सहूलियत के मुताबिक नियमों को कहीं- कहीं थोड़ा शिथिल करते हुए चलती है। आखिरकार व्यवस्था के अभिन्न अंग हैं वे। इनकी दुनिया एयरकंडिशन्ड कमरों और कारों से शुरू होकर वहीं खत्म हो जाती है। गर्मी की वजह मौसम का मिजाज है या फिर एयर कंडीशन के टेंपरेचर में कमी कोई खास मायने नहीं रखता है। सब कुछ सामान्य।
अब एक वर्ग है मजदूरों, मेहनतकश लोगों का । इन बेचारों के पास वक्त ही कहां है इन मुद्दों पर सोचने का। दाल रोटी से ऊपर उठ पाएं, तभी तो कुछ सोचें। थोड़ा बहुत अगर कुछ वक्त मिला भी तो सुकून की तलाश में कब दिन बीता और कब रात शुरू होकर खत्म हो गई पता ही नहीं चलता है। यह तो बेचारा बस इतना ही सोचता है कि ज्यादा सोचने से बेहतर है कुछ कल के लिए भी कमा लिया जाए। आखिरकार दाल रोटी का जो सवाल है। पर, ऐसा कहां हो पाता है। वैसे भी कल को किसने देखा है। इस बात को अक्षरशः मानते हैं ये लोग।
अब बचा वह वर्ग जिसे आप बुद्धिजीवी कह लें, मध्यम वर्ग कह लें, नौकरी पेशा कह लें। चाहे जिस नाम से भी पुकारें। कोई फर्क नहीं पड़ता है। इस वर्ग की एक स्वाभाविक मजबूरी है। चाहे-अनचाहे, जाने-अनजाने यह वर्ग अमूमन आप देखेंगे हमेशा व्यवस्था के खिलाफ ही नजर आता है। एक अजीब सी कशमकश से गुजरते हैं ये लोग। दुनिया और समाज को ठीक करने का बीड़ा उठाने को हमेशा तत्पर और तैयार।
भाई क़ाज़ी जी दुबले क्यों ? आखिरकार, पूरे शहर की चिंता जो उन्हें सता रही है। यह वो वर्ग है, जिसे व्यवस्था में हर वक्त कुछ ना कुछ कमियां ही नजर आती है। इन्हें आप ना तो दाएं और ना ही बाएं ही बिठा सकते हैं। केंद्र में ही रहेंगे। इस वर्ग के कुछ ज्यादा और प्रोएक्टिव लोगों को नया नाम भी आजकल दिया गया है अर्बन नक्सलाइट !
धर्म कर्म संस्कृति के ध्वजवाहक है ये। क्या मजाल कि ये थोड़ा भी इधर से उधर हो जाएं। इन्हें ऐसा लगता है कि ये शेषनाग की तरह धरती को अपनी शय्या पर लिए हुए हैं। अगर हिल गए तो धरती का कांप उठना तो तय है।कहीं ना कहीं मजबूरी भी है इनकी। काबिलियत है इनके पास। सोचने समझने की शक्ति है इनके पास। पर, ये समाज के उस तथाकथित वर्ग से नहीं हैं, जो निर्णय ले सकता है। मेहनतकश और मजदूरों की तरह चुपचाप नहीं बैठ सकतें हैं ये। देश और दुनिया का इतिहास और साहित्य पढ़ा है इन्होंने। बड़ी ही अलहदा है इनकी जिंदगी।
इनकी समस्या भी बड़ी ही अभूतपूर्व। बड़ी ही गंभीर। बोल तो बहुत सकते हैं। जब बोलेंगे तो ऐसा लगेगा कि सरकार अब गई तो तब गई। पर व्यवहार में बड़ा ही बेबस है और बेचारा है यह वर्ग। बिल्कुल तांगे में जुते हुए हुए घोड़े की तरह। भूल से भी अगर दाएं – बाएं देखा तो कोचवान की चाबुक है ही और लगाम भी तो कोचवान के ही हाथों में है। कहां जाएंगे ये। ऊपर चढ़ नहीं सकते और नीचे आ नहीं सकते।
– मनीश वर्मा ‘मनु’