एक व्यक्ति का चिंताजनक स्थिति में बड़े शहर में आना और यहां के एक निजी अस्पताल में भर्ती होना। इलाज चल ही रहा था कि मालूम पड़ा कोरोना ने भी अपनी जगह बना ली है । जब तक कोरोना के बारे में पता नहीं चला था। इलाज चल रहा था। चिंताजनक स्थिति तो ख़ैर पहले से ही थी। बस फिफ्टी फिफ्टी का मामला था।
परिजन भगवान् को याद कर रहे थे। डॉक्टर ने भी कह ही रखा था बस भगवान् पर ही भरोसा रखें। पर, हद हो गई। जैसे ही अस्पताल में मरीज का कोरोना जांच में कोरोना पोजीटिव आने की ख़बर मिली। अस्पताल ने इलाज करने से साफ़ मना कर दिया। डॉक्टर ने अपने हाथ खींच लिए। अस्पताल प्रशासन ने कहा अब इन्हें यहां से ले जाइए । परिजन परेशान कहां ले जाएं आखिर! रोगी की स्थिति बिगड़ती चली जा रही थी। परिजन परेशान! सामने यक्ष प्रश्न कहां जाएं। परदेश में कोई सहारा भी नहीं।
धरती पर जिन्हें हम भगवान् समझते हैं उन्होंने भी किनारा कर लिया। ख़ैर! किसी तरह शहर के एक बड़े, बहुत बड़े सरकारी अस्पताल में दाखिला मिला! आम आदमी के लिए वहां जगह मिल जाना ही इस बात की गारंटी हो जाती है कि अब हमने अपने आप को भगवान् के हाथों में सौंप दिया है। कितना भरोसा करते हैं हम ! ख़ैर!
कोविड वार्ड किसी भी बाहरी व्यक्ति को आने जाने की अनुमति नहीं। आप अपने मरीज को देख भी नहीं सकते। ठीक होकर अगर बाहर आ गया तो बड़ी अच्छी बात। वरना अंत समय में बेचारा मरीज़ और परिजन ! बस कुछ नहीं कह सकते। शायद समय पर आंसू भी नहीं बहा सके। बड़ी अजीब और दर्दनाक स्थिति है।
हमलोग कहने को तकनीकी रूप से निरंतर प्रगति कर रहे हैं।कम से कम एक बड़ा सा स्क्रीन ही लगा देते। कम से कम मरीज़ को आखिरी वक़्त जी भर कर निहार तो लेते। आख़िरी वक्त को बतौर यादें जिनके सहारे अब पुरी जिंदगी कटनी है उसे कम से कम क़ैद तो कर लेते।
मरीज़ दो-तीन दिन वहां भर्ती था। बाहर लोगों की सांसे अटकी रही। कोशिश करते रहे की पल-पल की खबर मिले। पर कहां! बहुत मुश्किल से जुगाड़ टेक्नोलॉजी के सहारे मरीज का हाल चाल लेते रहे। कभी मालूम पड़ता ठीक है। कभी मालूम पड़ता वेंटिलेटर पर उन्हें रखा गया है। अंततोगत्वा जिंदगी हार गई मौत जीत गई ।
ख़ैर! बातें यहीं समाप्त नहीं होती हैं। बात तो यहां से शुरू होती है। मौत का कारण कोविड बनता है। प्रोटोकॉल के तहत मृतक के शरीर को प्लास्टिक बैग में लपेट कर परिजनों को इस हिदायत के साथ मृतक का शरीर दिया जाता है कि आप सीधे बैकुंठ धाम या आप उन्हें मुक्तिधाम कह सकते हैं वहां पहुंचे और अंतिम संस्कार करें। परिजन वहां पहुंचते हैं। अब देखिए क्या खेल शुरू होता है। सरकार ने तो नियम बना रखा है कोई पैसा नहीं लेना है। वाकई वहां अंतिम संस्कार के पैसे नहीं लिए जाते हैं। पर पंडित , ठाकुर और कुछ सामान के नाम पर कुछ न कुछ वसूली शुरू होती है। फिर आता है मामला कि एंबुलेंस से मृतक का शरीर कौन उतारकर बाहर रखेगा। अपने भी वहां पीछे हट जाते हैं। कोविड फ़िर सामने आ खड़ा होता है।
कुछ लोगों को ढूंढा जाता है। महज 10 कदम की दूरी के लिए पांच पांच सौ रूपए दिए जाते हैं। मैं यहां यह सब इसलिए नहीं लिख रहा हूं कि मुझे इससे कोई लेना देना है । मैं कोई पत्रकार नहीं हूं। मैं जो बोलने जा रहा हूं उसे ध्यान से सुने समझने की कोशिश करें ।मैं क्या कहना चाह रहा हूं। डॉक्टर इलाज कर रहे हैं ।कंपाउंडर नर्सेज वगैरह सारे लोग जुड़े हुए हैं। एंबुलेंस वाला जुड़ा हुआ है। सारे लोग हालांकि शशंकित हैं ।
पर क्या करें। सुरक्षात्मक उपायों के साथ अपने अपने कार्यों का निष्पादन कर रहे हैं। डर वो भी रहें हैं। उनका भी परिवार है। वे भी किसी के भाई बहन, माता पिता आदि हैं ।पर, आपके परिजन इतना डरे हुए हैं। पता नहीं किस बात का डर है । मृतक को अंतिम वक्त में कंधा भी मयस्सर नहीं हो पाया। कहने को अंतिम संस्कार था। ढ़ंग से हम उन्हें आखिरी विदाई तक नहीं दे पाए। बताइए कहां जा रहें हैं हम! सुरक्षात्मक उपायों के साथ हम मृतक को अपना कंधा तो मयस्सर करा ही सकते थे।
मौत एक अंतिम सच्चाई है। प्रारब्ध है। इसे आना ही है । प्रारब्ध से भला कौन बच पाएगा। आप नास्तिक हो या आस्तिक कोई फर्क नहीं पड़ता है । कब तक सच्चाई से मुंह चुराएंगे!
चार कंधे वह भी अगर मयस्सर ना हो तो बताइए! बताइएगा जरूर! आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार रहेगा।
मनीश वर्मा ‘ मनु ‘