Manu Kahin

रविवारीय: संयोग

प इसे महज संयोग कह सकते हैं। पर, एक सच्चाई तो है। हम और हमारी उम्र और उसके आसपास के हम सभी लोग विश्व परिदृश्य में हो रहे या हो चुके अहम बदलावों के प्रत्यक्षदर्शी रहे हैं। वाहक भी रहे हैं। और इन बदलावों को वर्तमान में अनुभव भी कर रहे हैं । बदलाव से वाकिफ हैं सभी। सकारात्मकता के साथ ही साथ नकारात्मकता को भी महसूस कर रहे हैं।

कल, वो एक दौर था जब महज एक टेलीफोन कॉल करने के लिए घर से निकल कुछ दूर जाना पड़ता था। पीसीओ पर अपनी बारी का इंतजार करते थे। एक नजर मीटर पर टिकी रहती थी ताकि मीटर की रीडिंग जेब में रखे पैसे पर भारी ना पड़ जाए। दूर किसी अपनों से बातचीत करना और उसका हाल चाल जानना एक टास्क हुआ करता था। पर आज की स्थिति क्या है? शायद बताने की जरूरत नहीं है!

हां एक बात का मैं यहां जिक्र करना जरूर चाहूंगा। नौकरी तब तक मेरी लग चुकी थी। कार्यालय में ऑपरेटर के माध्यम से फोन करने की सुविधा भी उपलब्ध थी। पर मन एक टेलीफोन फोबिया से ग्रसित था। इस्तेमाल करने में डर लगता था। कहीं कोई गलती ना हो जाए। जैसे फोन ना होकर कोई अलहदा वस्तु हो। पर इतने त्वरित गति से अपनी भावनाओं का इजहार और संप्रेषण करने के बाद भी हमारे संबंधों में जो प्रगाढ़ता, जो मजबूती आनी चाहिए थी, क्या वो आ पाई? शायद नहीं। कहां से आएगी?हमने तो धैर्य ही खो दिया था। हाँ, अधीर हो चुके हैं हम सभी।

जब समय आया कंप्यूटर का, लोग बाग अजीब अजीब आशंकाओं से ग्रस्त थे। हर एक व्यक्ति की अपनी एक अलग धारणा थी। अपनी एक अलग कहानी थी। उन्हें ऐसा लगता था मानो उनका रोजगार कंप्यूटर के आते ही छिन जाने वाला हो। कहीं मैंने पढ़ा था, जब रेल इंजन का आविष्कार हुआ था तब लोगों ने उसे देखकर कहना शुरू किया था “एक काला राक्षस दौड़ता हुआ आता दिखाई देता है।”

अजीब अजीब धारणा और आशंकाओं से लोगबाग ग्रस्त थे। खैर! वो तो लगभग 200 वर्ष पहले की बात थी ‌। हां, कंप्यूटर के संदर्भ में, खैर, वैसी कोई बात तो नहीं थी। पर, एक अजूबा तो था अपना यह कंप्यूटर। पर आज क्या स्थिति है? क्या, कंप्यूटर के बिना हम एक कदम भी आगे बढ़ा सकते हैं। शायद नहीं! ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है, जहां कंप्यूटर ने अपनी पैठ ना बनाई हो या फिर अपनी उपयोगिता ना सिद्ध की हो।

फिर, जनाब एक दौर आया मोबाइल फोन का। क्रांति आ गई। आप इसे कंप्यूटर का छोटा वर्ज़न कह सकते हैं।जैसा मैंने पहले कहा एक दौर था जब एक ओर लोग बाग टेलीफोन बूथ पर जाकर पंक्तिबद्ध होकर अपनी बारी का इंतजार करते थे। टेलीफोन युग से मोबाइल युग में आते ही मोबाइल फोन ने सारी दूरियां सिमटा दी।

एक फिल्म आई थी- ” दुनिया मेरी जेब में”।  मैंने तो नहीं देखी पर भाई साहब मोबाइल फोन ने तो वाकई आपकी दुनिया आपके जेब में ही डाल दी। सारी सीमाएं खत्म हो गईं। दूरियां मिट गईं। याद कीजिए वो दौर जब मोबाइल पर इनकमिंग कॉल पर भी पैसे लगते थे। मोबाइल पर फोन आना एक कौतूहल पैदा करता था।

क्या लोगों ने उस वक्त कभी सोचा होगा कि मोबाइल उनके जीवन पर इस तरह से हावी हो जाएगा कि उससे पीछा छुड़ाने के लिए यत्न करने पड़ेंगे। आज वही वक्त आ गया है। मोबाइल , कंप्यूटर आदि की वजह से दुनिया वाकई बहुत छोटी हो गई है, पर इसकी एक कीमत चुकानी पड़ रही है। हम वास्तविक जीवन को ना जीकर आभासी जीवन जीने को मजबूर हैं।

इस दौरान वैश्विक स्तर पर बहुत सारे बदलाव आए। इन बदलावों की वजह से हमारे रहन-सहन में भी बदलाव देखने को मिला। ऑटोमोबाइल सेक्टर में भी क्रांति देखने को मिली। हवाई परिवहन के क्षेत्र में व्यापक बदलाव देखने को मिला।

क्या यह महज एक संयोग था कि एक आम आदमी भी आगे बढ़कर सोचने लगा था? उसके सोचने के आयाम में परिवर्तन देखने को मिल रहा था। सब की दुनिया बदल सी गई थी। अब, जब सारे बदलावों से हम जुड़ गए हैं, इन सारी चीजों के हम साक्षी हैं, तो क्या इन्हें हम एक संयोग मानेंगे?

बहुत दूर की बात नहीं है। एक – दो वर्ष पुरानी ही तो बात है। हमें कोरोना की बात भी करनी चाहिए। एक अभूतपूर्व दौर से गुजर रहे थे हम सभी। पूरा विश्व हलकान था कोरोना के प्रकोप से। हम लोगों ने इतिहास में पढ़ा था, समाचार पत्रों में छपी खबरों के माध्यम से जाना था किसी काल में विश्व के भिन्न-भिन्न भागों में फैली महामारियों के बारे में। संयोग वश ही सब भी आज साक्षी बन गए हैं एक महामारी के जबकि आज हमारे पास पहले से कहीं उन्नत एक स्वास्थ्य व्यवस्था है। समस्त विश्व एक साथ मिलकर भी कोरोना पर अब तक पूर्ण रूप से विजय प्राप्त नहीं कर पाया है।

यह वायरस तो रह रह कर एक नए वेरिएंट के साथ मुंह उठाए हमारे समक्ष आ खड़ा होता है। क्या कभी किसी ने सोचा था कि मनुष्य जो खुद को सर्वशक्तिमान समझने का मुगालता पाले बैठा है, उसे यूं घुटने टेकने पर मजबूर होना पड़ेगा? तब के और अब की स्थिति में मेरे विचार से जो बुनियादी फर्क आया वह यह है कि आज जो हम एक दूसरे के पल-पल की खबर रख रहे हैं तो हम पहले से ज्यादा अधीर नजर आने लगे हैं। धैर्य कुछ कम सा हो गया है।

जरा उस वक्त के बारे में सोचिए जब हम अपनी महत्वपूर्ण बातों को रखने के लिए अक्षरों एवं शब्दों में अपने संदेश एक तय शुल्क अदा कर भेजा करते थे। यहां हम बातें कर रहे हैं टेलीग्राफिक संदेशों की। भावनाओं का इजहार और संप्रेषण ! क्या दिन थे वे। कहां खो गए वो दिन। आज देखिए हमने यहां लिखा नहीं कि आप तक पहुंच भी गया। कितना आसान हो गया भावनाओं का इजहार और संप्रेषण! यह एक आम संयोग तो नहीं ही है और फिर, हम जैसे पुराने उम्रदराज़ लोगों के लिए  शायद सहज भी नहीं है।शायद आप भी यह बात मानेंगे।

– मनीश वर्मा’मनु’

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