Manu Kahin

नौकरी ना करी, और करी तो ना, ना करी

इए हम जानने की कोशिश करते हैं उन अंतर्निहित मायनों की जो नौकरी करने के दौरान एक अधिकारी और उनके मातहत के बीच हुए संवाद से उत्पन्न होते हैं। अधिकारी वर्ग एक ऐसा वर्ग है जिसके पास सिर्फ और सिर्फ अधिकार ही होते हैं। प्रजातंत्र में यह कहना उचित नहीं होगा कि बाकियों के पास अधिकार नहीं होते हैं । हाँ, उनके पास भी अधिकार होते हैं पर थोड़े बहुत सीमाओं के साथ।

दृश्य नंबर एक:-

अधिकारी – कहां हो?

मातहत – सर, अभी – अभी खाना खाने घर पहुंचे हैं!

अधिकारी – अरे यार! खाने की इतनी जल्दी भी क्या है! देखो मुझे भी लंच करना है। अभी ड्राइवर को घर भेजा है लंचबॉक्स लाने को ! वैसे इतनी जल्दी भूख भी कहां लगती है। देखो, ऐसा करो! कुछ देर के लिए मेरे पास आ जाओ। फलां फलां मुद्दे पर कुछ डिस्कस कर लेते हैं!

अब बेचारे मातहत के पास कोई विकल्प नहीं है। बॉस ने बड़े प्यार से उसे अपना आदेश सुना दिया है। अपने निर्णय से अवगत करा दिया है।

मातहत – जी, जी सर! अभी आते हैं सर। पत्नी से माफी मांग जल्दी से घर से बाहर निकल कार्यालय की राह पकड़ता है बेचारा!

बेचारे मातहत को समय पर लंच कर मधुमेह और उच्च रक्तचाप की दवा खानी थी। बिना खाए दवा ले नहीं सकते हैं। अब कोई कैसे बताए कि आखिर दवा लेने के बाद भी यह जो राज रोग लग गया है आखिर इस गरीब पर रहम क्यों नहीं करता है। क्यों नियंत्रित नहीं रहता है।

दृश्य नंबर दो:-

रात के दस बज रहे हैं। शहर अब लगभग सोने की कोशिश कर रहा है। सड़कों पर इक्का दुक्का वाहन चल रहे हैं। अधिकारी जो शहर में यातायात ढंग से, सुचारू रूप से चले, कोई गड़बड़ ना हो, उसे इस बात के लिए ही यातायात प्रमुख बनाया गया था। नई नई नौकरी। तेवर भी नए और ठसक का तो कहना ही क्या! दुनिया मेरी जेब में।

नौकरी के शुरुआती दिनों में कुछ ऐसा ही होता है। बहुत दिनों की कुंठा हम अपने सर पर ले उसे ठीक करने की जद्दोजहद में जुट जाते हैं। यह तो बहुत बाद में पता चलता है कि हम तो एक सिस्टम में चल रहे हैं। हमारा वजूद एक बहुत बड़े कैनवास पर एक बहुत छोटा एक डॉट के बराबर है जो हम अगर देखना चाहते हैं तो दिखता है, वरना पता भी नहीं चलता है। हम अपनी उर्जा को बस्स! यूं ही खपाए चले जाते हैं। चीजें जहां थीं आज भी वहीं पर क़ायम है। बस समय पंख लगा कर मानो उड़ गया था। आज हम चुपचाप बैठे अपने ही लिए विदाई भाषणों को सुन कल की चिंता कर रहे हैं। आज़ के बाद ये सभी मुझे अंजान लगेंगी।

खैर! यही दुनिया है और यही हैं दुनिया के दस्तूर।

अधिकारी – कहां हो?

मातहत अधिकारी – जय हिन्द सर। अब तो सड़क पर ट्राफिक भी नहीं है। कोई वी आई पी मुवमेंट भी नहीं है तो सोच रहे हैं घर चले जाएं।
अधिकारी की, जैसा मैंने बताया, नई नई नौकरी है। घर से दूर। किसी भी प्रकार का कोई सोशल ओबलिगेशन नहीं।शादी अभी हुई नहीं है। ना कोई सोचने के लिए है और ना ही घर पर कोई इंतज़ार कर रहा है। अपनी इच्छानुसार नौकरी करनी है। कोई समय सीमा नहीं।

बेचारा मातहत जो अपनी नौकरी के लगभग अंतिम पड़ाव पर है। बहुत कोशिश करने के बाद भी जिम्मेवारियां कहां खत्म हुई हैं! घर जाकर खाना खाने और सोने के बीच का समय ही तो मिलेगा परिवार के साथ मिलकर कुछ सोचने का। सभी की अपनी अपनी शिकायतें हैं। पत्नी ने तो खैर स्थिति से समझौता कर लिया है। बच्चों को समझाना थोड़ा मुश्किल हो जाता है। नए जमाने के बच्चे हैं। वन टू वन बात करना चाहते हैं। हमारी तरह नहीं कि जो मां बाप ने कह दिया वो ब्रह्म लकीर। बहुत ही असमंजस की स्थिति हो जाती है।

खैर!

अधिकारी – अरे भाई अभी तो दस ही बजे हैं। इतनी जल्दी भी क्या है। आओ हम दोनों मिलकर शहर का एक चक्कर लगा लेते हैं। फिर घर चले जाना।
भाई बॉस की बात।

“आपके अधिकारी हमेशा सही होते हैं “, नौकरी करनी है, ना ना अगर निभानी है, तो इस बात को हमेशा ध्यान रखें। वैसे बचपन से एक बात सुनता आया हूँ। ” नौकरी की नहीं जाती है, निभाई जाती है”।

नौकरी में लगभग इतने साल देने के बाद इसके अंतर्निहित मायनों का पता चला। अगर आप वाकई नौकरी करने की कोशिश करते हैं तो आप कुछ ज्यादा ही स्मार्ट हैं, और यह शब्द आपके लिए अनुकूल नहीं है। नौकरी करनी है – मेरा मतलब निभानी है, तो अपने कमर की कसरत करें। उसमें लचीलापन लाएं। गर्दन की भी कसरत करें। गर्दन में रॉड ना लगाएं। नुकसान हो सकता है। आपको यह छोटी सी बात क्यों नहीं समझ में आती है? व्यर्थ के नियमों और विनियमों में अपना सर खपाते हैं। यह आपके लिए नहीं है। इन बातों के लिए अलग पढ़ाई होती है।

आप बस समय पर अपने बॉस के आने से पहले दफ्तर पहुंच जाएं। अपनी तय जगह पर बैठें। निर्देश के लिए अपनी बारी का इंतजार करें। हाँ, अपना काम पुरी ईमानदारी, शिद्दत और सत्यनिष्ठा के साथ निभाएं। आपने इसी बात की शपथ ली है, और शपथ लेकर कोई ग़लत करता है भला!

दृश्य नंबर तीन:-

भारत के नाम से जुड़ा हुआ भारत का एक बहुत बड़ा सार्वजनिक बैंक के स्थानीय मुखिया का बड़ा सा दफ्तर। दफ्तर ना होकर कोई अभेद्य किला हो। प्रधानमंत्री जी से मिलना शायद उतना मुश्किल नहीं जितना उक्त बैंक के स्थानीय मुखिया से। प्रजातंत्र में भी पता नहीं इन्हें लोगों से मिलने से परहेज़ क्यों! आने जाने के लिए एक निश्चित स्तर के अधिकारियों के लिए अलग व्यवस्था। भाई बैंक है कोई सेना का कार्यालय नहीं जहां सुरक्षा के मद्देनजर आम आदमी के लिए प्रवेश निषेध। दो और दो चार की दुनिया है। अगर खुदा ना खास्ते किसी बड़े घराने से निकल कर आते तो पता नहीं क्या करते!

आदमी से इतना परहेज़ क्यों भाई?

अंत में एक स्वर्णिम वाक्य:-

” नौकरी ना करी, और करी तो ना, ना करी “!

डिस्क्लेमर: कृपया इसे दिल पर और दिल से ना लें। व्यंग्य के रूप में लें।खुद भी हौले से मुस्कुराएं और दूसरों को भी इस भागती दौड़ती हुई ज़िन्दगी में मुस्कुराने का कुछ मौका दें।

मनीश वर्मा ’मनु’

Share this article:
you may also like