मेरे घर का पता मेरे ना चाहने पर भी हमेशा बदलता रहता है। आम आदमी के घर का पता है जनाब! कोई लुटियंस जोन में स्थित कोठी नहीं है जिसके इर्द गिर्द सारे पते बसते हों। जिस तरह ख़ास आदमी की एक क्लास होती है, आम आदमी की भी एक क्लास होती है। आप मानें या ना मानें। किसी ने सच ही कहा है – कैटल क्लास।
खैर! मेरे घर का पता एक आम आदमी के घर का पता है। फितरत ही इसके बदलने की है। आप चाहकर भी इसके बदलने को नहीं रोक सकते हैं। अक्सर मेरे घर का पता पूछते हुए लोग एक लैंडमार्क की बात करते हैं। जानना चाहते हैं वो कि मेरे घर के आसपास कोई लैंडमार्क है या नहीं। सहूलियत होती है उन्हें तब मेरे घर को जानने में और पहचानने में। बेचारा आम आदमी, अपनी ज़िन्दगी भर की पूंजी और ना जाने कितने ही चीजें लगाकर अपना एक छोटा सा आशियाना बनाता है। उसका सब कुछ लुट जाता है अपना छोटा सा एक आशियाना खड़ा करने में। चाहता है कि उसका आखिरी समय सुकुन के साथ उसके इस घर में बीते। पर, क्या हो पाता है यह? सब कुछ एक मृग मरीचिका है।हम सभी उसमें ही जीते और मरते हैं। सुख और दुःख दोनों ही में भगवान को याद करते हैं और सभी में उनकी इच्छा का सम्मान करते हैं।
खैर! कहां को चले थे और कहां पहुंच गए। बड़ा ही भावुक होता है आम आदमी। अक्सर भावनाओं में बह जाता है। अब देखिए ना! पहले मेरे घर का पता, जब मैंने शहर से बाहर एक छोटा सा फ्लैट लिया था, एक कार के किसी शोरूम के सामने था; कुछ ही दिनों के अंतराल पर बदल कर किसी और कार के शोरूम के बगल में हो गया। ज्यादा समय नहीं बीता भाई साहब, अब वो पुनः एक बदलाव के साथ, एक अदद अस्पताल के सामने हो लिया। चलिए, बात यहीं पर अगर खत्म हो जाती। नहीं ना! बिल्कुल नहीं। उसे फिर बदलना था। हमने तो शुरू में ही बताया था कि इसकी फितरत ही बदलने की है। अब उसका नाम एक बड़े से डिपार्टमेंट स्टोर के साथ जुड़ने लगा। कुछ समय के बाद अब एक दूसरा हस्पताल सामने आ गया।
मैं वहीं हूँ । मेरा घर वहीं है। बस मेरे घर का पता बदलते जा रहा है। पता नहीं कब तक! आखिर कब तक, यह बदलाव जारी रहेगा। जब ऐसा लगा कि अब सब कुछ ठीकठाक चल रहा है तो फिर से मैं देख रहा हूँ उसे बदलते हुए। पता नहीं यह पता भी कितने दिनों तक रहेगा। फिलहाल मेरे घर के पते का लैंडमार्क एक बड़े मिठाई की दुकान और उसके साथ जुड़े हुए रेस्तरां के साथ जुड़ने वाला है।
अब तो लोगों को अपने घर का पता बताते हुए भी थोड़ी सावधानी बरतनी पड़ रही है। थोड़ा विस्तार देना पड़ता है। शायद, कहीं लोग यह ना पूछ बैठें- ‘ बहुत घर बदलते हो यार ‘ । अब किस- किस को अपना दर्द बयां करूं। किस- किस को और कब तक अपने घर का पता बताऊं।
काश! एक बड़ा सा आलीशान बंगला बनाया होता! शायद, तब वो अपने आप में ही मेरे घर का पता होता। शायद इसका पता बार बार नहीं बदलता। आसपास के क्षेत्र की पहचान तब मेरे बंगले से होती। पहचान का संकट तब नहीं होता। बार बार पहचान बताने और कराने की कोशिशें तब नहीं करनी होती।
पर फिलहाल तो …क्यों भाई साहब अब आप नहीं पूछेंगे मेरे घर का पता?
– मनीश वर्मा ‘मनु’