Manu Kahin

रविवारीय: दूर का ढोल

दूर का ढोल हमेशा से ही सुहावना रहा है। हम जैसे ही विकसित देशों और ख़ासकर पश्चिमी देशों की बातें करते हैं , हमारे ज़ेहन में उस देश के बारे में, वहां के जगहों के बारे में, वहां के लोग, जीवन शैली, शिक्षा, संस्कृति आदि के संदर्भ में एक निहायत ही खुबसूरत सी तस्वीर उभरकर सामने आने लगती है। हम कल्पनाओं के सागर में गोते लगाने लगते हैं। ऐसा लगता है, हम कहां हैं और वो कहां। हम तुलनात्मक हो जाते हैं। हमें अपनी चीजें अब अच्छी नहीं लगने लगती हैं।

पर क्या वास्तव में हम, जो यहां बैठकर, कुछ पढ़कर और कुछ लोगों से जानकर जो एक काल्पनिक तस्वीर बनाते हैं, वो सच्चाई के कितने पास है, हम जान पाते हैं ? शायद नहीं! यह एक प्रकार की मृग मरीचिका है। हम भ्रम की दुनिया में जीते हैं।

पर जैसा मैंने पहले भी कहा, दूर का ढोल हमेशा से ही सुहावना रहा है। हम कुछ नहीं कर सकते हैं। मानव सोच की प्रकृति ही ऐसी है। हम पश्चिमी देशों के पीछे भाग रहे हैं और वो हमारी सनातन धर्म और संस्कृति एवं सभ्यता के गूढ़ रहस्यों को जानने में हमारे यहां की गलियों की ख़ाक छान रहे हैं। कभी उन्होंने हमारे बारे में कहा था, “भारत संपेरों का देश है” । आज़ हमारे बारे में उनकी धारणा बड़ी तेजी से बदलती जा रही है। आज़ के भौतिकवादी युग में उन्हें भारतीय दर्शन और अध्यात्म काफ़ी सुकून दे रहा है।

खैर! ताज़ा प्रसंग अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस का है जो 8 मार्च को आने वाला है। कहने को महिलाओं के सम्मान, उनकी प्रतिष्ठा और उनके प्रति प्रेम , समर्पण और विश्वास को दर्शाता यह दिवस। पर क्या हमने कभी सोचा, कभी जानने की कोशिश की, कि आखिर क्या वजह रही है इस दिवस को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाने की? कुछ तो बात रही होगी।

हम तो महिलाओं को केन्द्र में रख एक कार्यक्रम आयोजित कर लिए और बस इतिश्री । फ़िर अगली मर्तबा सोचेंगे अब क्या करना है। इस बार की खानापूर्ति तो हमने कर लिया। औपचारिकताएं पूरी कर ली।

चलिए कोशिश करते हैं जानने की, आखिर हम क्यों अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाते हैं। क्या ख़ास है! अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की शुरुआत बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में हुई थी। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि आज जिस देश को पुरा विश्व अपना नेता मानता है, जो अघोषित तौर पर निर्विवाद रूप से विश्व की सर्वोच्च शक्ति है, एक प्रजातांत्रिक देश है, जहां प्रजातंत्र की जड़ें काफ़ी मज़बूत हैं। जिसने अपना लिखित संविधान सन् 1787 ईस्वी में ही बना लिया था।

उस देश में, बड़े ही दुर्भाग्य की बात है महिलाओं को मतदान का अधिकार सन् 1920 ईस्वी में जाकर मिला और वह भी काफ़ी जद्दोजहद और आंदोलन के पश्चात। और सुनिए, बात यहीं ख़त्म नहीं होती है। मतदान का यह अधिकार वहां रहने वाले अश्वेतों को नहीं था। यह उन्हें यानी कि अश्वेतों को जाकर सन् 1964 ईस्वी में मिला।
वाकई दूर की थाली में पड़ा लड्डू कुछ ज्यादा ही बड़ा दिखता है।

आइए अब हम आपको पुराने ग्रीस और रोमन गणराज्य की ओर लिए चलते हैं जहां बहुत पहले से ही लोकतांत्रिक व्यवस्था चल रही थी। पर, वहां भी सन् 1952 ईस्वी में जाकर महिलाओं को मतदान का अधिकार मिला और वह भी एक लंबी लड़ाई लड़ने के बाद। आस्ट्रेलिया ने सन् 1906, तो फ्रांस और इटली ने सन् 1939 के बाद महिलाओं को मतदान का अधिकार दिया।

पुराना सोवियत संघ, कनाडा, जर्मनी आदि देशों ने बहुत जद्दोजहद के बाद प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध के बीच महिलाओं को अपने यहां मतदान का अधिकार दिया।जरा सोचिए, मनन करने की बात है। हम अपने देश की तुलना अन्य विकसित देशों से करते हैं। पर भारत ने अपने यहां तो महिलाओं को मतदान का अधिकार संविधान के बनते ही दे दिया था। लगभग दो सौ वर्षों की गुलामी के बाद जैसे ही हमने अपना संविधान बनाया महिलाएं हमारे यहां अपनी सरकारें चुनने लगीं।

हमें तो अपनी ताक़त का भान ही नहीं है।बस दूसरों की चीजें देखकर तुलनात्मक हो जाते हैं। ” कस्तूरी कुंडली बसै मृग ढूंढें बन माहि”। सनातन काल से हमारे यहां की महिलाएं एक नेतृत्वकर्ता की भूमिका में हैं। जरूरत आ पड़ी है हमें हमारी संस्कृति और सभ्यता पर अभिमान करने की। हमने हमेशा पुरे विश्व को रास्ता दिखाया है। आज़ भी हम विश्व गुरु बनने की राह पर हैं। जटिल से जटिल मामलों पर भी पुरे विश्व की नज़र हमारे नजरिए पर रहती है।

भारत क्या सोचता है। उसका दृष्टिकोण क्या है। अपने धर्म ग्रंथों का अध्ययन करें हम। उपनिषदों को जानें। तभी शायद हम समझ पाएंगे कि हमारे लिए यह अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस बहुत मायने नहीं रखता है। हम तो सनातन काल से ही महिलाओं को यथेष्ठ सम्मान देते आएं जिसकी वो हकदार हैं। हमने उन्हें अर्धांगिनी का दर्जा दिया है। शायद ऐसा विश्व में कहीं नहीं है। हमारे लिए महिलाएं हमेशा से आदरणीय और पूजनीय रही हैं चाहे वो ममतामई मां हो, वात्सल्य से पूर्ण बहन हो या बेटी हो। हमने हमेशा उन्हें सम्मान दिया है।

जब ब्रह्मांड की और सृष्टि की रचना हुई,  कब, कहां और कैसे उस ओर नहीं जाना है। हमने रचयिता को ईश्वर नाम दिया है। ब्रह्मा जी को हमने इस ब्रह्माण्ड और सृष्टि का रचयिता माना है। हमने अपने रचयिता को देखा नहीं है। शायद हममें से किसी ने भी नहीं देखा है। हमारी आस्था है हमारा विश्वास है। कोई सवाल जवाब नहीं। किसी भी प्रकार का कोई तर्क कुतर्क नहीं।

तो जब रचयिता ने सृष्टि के साथ ही साथ मानव की रचना की तो उन्होंने सृष्टि आगे चले इस बात का ध्यान रखा और लैंगिकता की बात की। शायद उस वक्त पुरुष और महिलाओं के दरम्यान बराबरी और गैरबराबरी वाली बात नहीं थी। सृष्टि को आगे बढ़ाने और चलाने के लिए पुरुष और महिला की अवधारणा उस वक्त शायद आई होगी। यह तो हम मनुष्यों की देन है जिसने सभी चीजें बांट कर रख दी है। ना ही पुरुष हर जगह शक्तिशाली है और ना ही महिलाएं कमजोर। बस देखने का अपना अपना एक नजरिया है।

देखने का नज़रिया बदलना होगा। चीज़ों को सापेक्ष रूप में देखें। वस्तुनिष्ठ तरीके से देख कर आप उचित निर्णय नहीं ले पाएंगे।

 – मनीश वर्मा ‘मनु’

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