सभी महापर्व छठ की तैयारी में जुटे हुए हैं। कल खरना था और आज शाम का अर्घ्य है। दीपों का त्योहार दीपावली संपन्न होने के छह दिनों बाद नहाय-खाय (कद्दू भात) के साथ शुरू होता है चार दिनों का यह महापर्व। हालांकि, बीच में गोवर्धन पूजा, भाई दूज और हमारे समस्त कर्मों का लेखा जोखा रखने वाले, ब्रह्मा के मानस पुत्र भगवान श्री चित्रगुप्त जी की भी पूजा हम करते हैं, पर हम सभी को इंतजार रहता है तो सिर्फ और सिर्फ छठ पूजा का। छठ पर्व सिर्फ एक सामान्य पर्व ही नहीं है बल्कि एक भावना है और हम सभी उस इमोशन से जुड़े हुए हैं बिल्कुल रज्जू नाल की तरह।
लोक आस्था का महापर्व। कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी को मनाया जाने वाला आस्था, विश्वास, भक्ति और श्रद्धा से लबरेज़ एक त्योहार । बचपन में कहां पता था कि छठ पूजा का नाम छठ क्यों है। बड़े होने पर पता चला चूंकि दीपावली के छठे दिन मनाया जाता है इसलिए छठ नाम है। और भी बातें हो सकती हैं, हैं भी पर, हम सहजता में विश्वास रखते हैं। जो सहज लगा उसे अपना लिया। वैसे आगे हम इस संदर्भ में पौराणिक कथाओं की चर्चा करेंगे।
बचपन की यादें हैं छठ पूजा के साथ। उस वक्त मेरी लिए बड़ी ही उलझन वाली बात थी। हम देखा करते थे कि नानी छठ पूजा करती थीं। अर्घ्य सूर्य भगवान को देती थीं और छठ के गीत सारे समर्पित थे छठी मैया को। कुछ समझ में ही नहीं आता था। बाद में जैसे जैसे बड़े होते गए समझ में आने लगा। बहुत सारी बातें हैं। अलग अलग जगहों पर अलग अलग बातें लिखी हुई हैं। कहीं बताया गया कि सूर्य भगवान् और छठ माता का रिश्ता भाई बहन का रिश्ता था।खैर! मेरी नानी छठ किया करतीं थीं। चार मौसियों और दो मामाओं का भरा पुरा घर। छठ पूजा पर एक उत्सव जैसा माहौल होता था। दशहरा और दीपावली पर वो मज़ा नहीं आता था हम बच्चों को, जो मज़े हम छठ में किया करते थे। अब तो बस छठ पूजा की यादें ही शेष हैं। वो माथे पर दौरा ( बड़ी सी टोकरी ) रख पैदल गंगा किनारे घाट पर जाना। पुरा घाट खचाखच भरा हुआ, पर सभी को दौरा रखने के लिए जगह मिल जाया करता था। व्रतियों के लिए लोगों के दिल में एक खास किस्म की श्रद्धा और सम्मान। बिल्कुल देवी तुल्य मानते थे हम सभी। काश! महिलाओं के प्रति वो सम्मान, वो श्रद्धा और वो देवी तुल्य भावना हम हमेशा अपने दिलों में रखते।
पटना शहर में रहते थे हम। जिस तरीके से सड़कों और आसपास की सफाई सभी मिलजुल कर करते थे मुझे पुरा यकीन है सरकारी स्तर पर उस तरह की सफाई नहीं हो सकती है। काम करने के लिए बाध्य नहीं थे हम। दिल से काम करते थे सभी। जात – पात और धर्म तो छठ पूजा के समय काफी पीछे छूट जाया करता था। छठ पूजा के दौरान शहर बिल्कुल साफ और पुरा शहर भक्तिमय। क्या मजाल की कहीं से भी कोई अपराध की खबर आए। छठ पूजा के उन चार दिनों में शहर मानो पुरी तरह से अपराध और अपराधी मुक्त। ऐसी होती है छठ पर्व की महिमा। बिल्कुल ही रामराज्य।
छठ के उपलक्ष्य में रात्रि में जगमगाता पटना में गंगा का तट
छठ के लिए मिट्टी के चूल्हे कोई सलमा या फिर रेहान की अम्मी ही बनाती थीं और आज भी बनाती हैं।
पौराणिक कथाओं के अनुसार छठ पर्व की कथा स्कंद ( कार्तिकेय ) के जन्म से जुड़ी हुई है। ऐसा कहा जाता है कि माता पार्वती ने स्कंद को जंगल में छोड़ दिया था जहां उनका लालन पालन जंगल में रहनेवाली छः कृतिकाओं ने किया था। कार्तिकेय की छ: माताएं इसी कारण से मानी जाती हैं और इसी वजह से उनका नाम स्कंद पड़ा। इन्हीं
कृतिकाओं को छठी मैया या छठ माता कहा जाता है। चूंकि यह घटना कार्तिक मास में हुई थी इसलिए यह व्रत स्कंद षष्ठी के नाम से भी जाना जाता है।
बहुत छोटे थे हम। नानी मेरी बहुत पहले गुज़र गई थीं। नानी के गुजरने के बाद छठ पूजा पर एक खालीपन सा आ गया था। जब तक आप इस पूजा में पूरे मनोयोग से, दिल से शामिल नहीं होते हैं आपको इसकी महत्ता और महिमा का अंदाज नहीं होगा।
छठ, छठ पर्व न होकर एक महापर्व है। एक अलग ही इसकी महत्ता है। लोगों का एक अलग तरीके का श्रद्धा और विश्वास है। दीपावली के ठीक छठे दिन छठ पर्व मनाया जाता है पर तैयारियां तो दीपावली के अगले दिन से ही शुरू हो जाती है। ऐसा लगता है मानो लोग बाग़ दीपावली ख़त्म होने का ही जैसे इंतजार कर रहे हों। छठ पूजा में दरअसल विभिन्न चरणों में हम प्रकृति की पूजा करते हैं। नहाए खाए से शुरू छठ पूजा उदयाचल सूर्य को अर्घ्य देने के साथ संपन्न होती है।
भगवान भास्कर की आराधना के साथ ही छठ महापर्व का चार दिनों का आस्था, श्रद्धा और विश्वास से सराबोर अनुष्ठान नहा-खाय ( कद्दू भात) से शुरू हो जाता है। इसमें व्रती महिलाएं नहाकर, गंगा या फिर आसपास के तालाबों से जल लाकर मिट्टी के बने चूल्हे पर शुद्ध वातावरण में चना दाल और कद्दू (लौकी) की सब्जी और अरवा चावल से बने भात तैयार करतीं हैं। इसे ही प्रसाद के रूप में खाया जाता है। बदलते हुए दौर में अब गैस चूल्हे वगैरह का भी इस्तेमाल होने लगा है।
इसके अगले दिन खरना पूजन के साथ 36 घंटे का निर्जला उपवास शुरू हो जाता है। खरना को कहीं कहीं लोहंडा भी कहा जाता है। महापर्व छठ के चार दिवसीय अनुष्ठान का दूसरा दिन खरना (लोहंडा) है।
खरना का प्रसाद
इस महापर्व में आप पाएंगे कि शुद्धता के साथ-साथ प्रकृति के साथ समवन्य का भी विशेष ख्याल रखा जाता है। खरना के प्रसाद के खीर में नए चावल का उपयोग होता है , वहीं तीसरे दिन के सांध्य अर्घ्य और चौथे दिन के प्रातःकालीन अर्घ्य के दौरान हुए पूजा के लिए मौसमी फलों का उपयोग किया जाता है।
इस पूजा में आप एक बात गौर करेंगे कि पूजा में इस्तेमाल किया जाने वाला लगभग सारा सामान प्रकृति प्रदत्त और मौसमी होता। आपके आसपास ही मौजूद होता है, और कहीं न कहीं आपके स्वास्थ्य और वातावरण के लिए भी बढ़िया होता है।
छठ पूजा एक ऐसा पूजा जिसमें आप खुद से पूजा करते हैं। आपके और आपकी आस्था, श्रद्धा और विश्वास के बीच कोई नहीं होता है। देवता आपके समक्ष प्रत्यक्ष होते हैं।किसी भी पंडित की जरूरत आपको पूजा संपन्न कराने हेतु नहीं पड़ती है। धर्म, जाति, बड़ा छोटा, अमीर गरीब और ऊंच नीच से परे है छठ पूजा। कोई मतलब नहीं है इन बातों का। प्रकृति की पूजा होती है। प्रकृति को हम पूजते हैं। कोई भी व्यक्ति पूजा कर सकता है। कहते हैं उगते सूर्य की पूजा तो सभी करते हैं। पर, डूबते हुए सूर्य की पूजा सिर्फ और सिर्फ छठ पूजा के दौरान ही होती है। औरों के लिए बहुत बड़ा विरोधाभास है, पर ऐसा ही होता है छठ पूजा में।
लोक आस्था का महापर्व छठ पूजा की महिमा अपरंपार है। बिहार से शुरू हुआ छठ पूजा आज़ मज़हब और धर्म की दीवारों से परे है। पुरे भारतवर्ष और विश्व के कई हिस्सों में जहां भी भारतीय समुदाय के लोग हैं वहां छठ पूजा मनाया जाता है। कई जगहों से इस बात कि सूचना मिलती है कि विदेशी व्यक्ति भी छठ पूजा करते हैं। मुस्लिम भी पूरा करते हैं और मनोयोग से इस पूजा में शरीक होते हैं। ऐसा लगता है मानो संपूर्ण विश्व आज छठ पूजा में लीन है। छठ पूजा के दौरान पानी में खड़े होकर डूबते हुए सूर्य और उगते हुए सूर्य भगवान को अर्घ्य देना एक आत्मविश्वास का अहसास कराता है। छठ पूजा की मान्यता है कि छठी मैया आपके तमाम दुःख हर लेती हैं और आपकी मनोकामना पूरी करती हैं।
छठ पर्व सिर्फ एक लोक पर्व या फिर प्रकृति पर्व ही नहीं है।यह तो एक महापर्व है जो सामूहिक का संदेश देती है। ऋग्वेद जो हमारा सबसे पुराना वेद है वहां भी इस पर्व का जिक्र आया है। इस पर्व की शुरुआत बिहार के मुंगेर से हुई थी।ऐसी मान्यता है त्रेता युग में महर्षि मुद्गल के आश्रम से इस पर्व की शुरुआत हुई थी यह पर्व पवित्रता का प्रतीक है।समय और स्थान परिवर्तन की वजह से थोड़ा बहुत परंपरा में बदलाव जरूर आया है, पर पूजन विधि में बहुत छेड़छाड़ नहीं हुई है।
समय के साथ ही साथ चीजें बदली हैं पर छठ व्रतियों के पहनावे में बदलाव नहीं आया है। आज भी पुरुष पीली धोती और महिलाएं सूती साड़ी में ही व्रत करती हैं। वो श्रद्धा, वो विश्वास, वो आस्था और महिलाओं और खासकर व्रतियों के प्रति वो देवी तुल्य भावना और सम्मान आज भी कायम है।