आजकल, आमतौर पर यह बात देखने को मिल रही है, मां-बाप अपने बच्चों, खासतौर पर जो बच्चे किशोरावस्था की उम्र में हैं, को लेकर काफी परेशान रह रहे हैं। उनकी आदतें, उनका व्यवहार मां-बाप की परेशानियों का सबब बनता जा रहा है। यह एक ऐसी स्थिति है, जहां हर मां-बाप अपने आप को लाचार महसूस कर रहा है। क्या करें, किससे कहें। वह इसी उधेड़बुन में हैं। जो दिक्कतें बच्चों के साथ आ रही हैं, उनमें मुख्यतः बच्चों का एकाकी होना, व्यवहार में आक्रामकता, लगातार मोबाइल फोन में चिपके रहना, व्यवहार में निरंतरता का अभाव आदि हैं।
जब आप बच्चों में ऐसे लक्षणों को ध्यान से देखेंगे, तो पाएंगे कि उपरोक्त सभी लक्षण एक दूसरे से संबंधित हैं। आप इसे कह सकते हैं कि एक दूसरे के साथ यह तमाम चीजें जुड़ी हुई हैं । एक दूसरे के पूरक हैं सभी। पर, एक बात मैं व्यक्तिगत तौर पर मां-बाप से ही पूछना चाहता हूँ। क्या , उन्होंने कभी ध्यान से इस बात पर गौर किया है कि इन सभी के मूल में क्या है। बच्चों के इस व्यवहार के पीछे आखिर वजह क्या है।
जब आप ध्यान देंगे तो पाएंगे कि उसकी वजह कोई बाहरी तत्व नहीं बल्कि हम खुद हैं। लगभग 90% मामलों में हम दोषी हैं। हमारा व्यवहार उनके प्रति जो होना चाहिए था, वह किसी कारणवश नहीं हो पाया, जिसके वो हकदार थे। हम गुनहगार हैं, पर मां-बाप या बतौर अभिभावक हमारा अहम इस बात को मानने को बिल्कुल तैयार ही नहीं है।
हम, यहां पर एक उदाहरण देना चाहता हैं। जब हमारे बच्चे छोटे थे। नौकरी की वजह से हमारी व्यस्तता थी। जब बच्चों को हमारा साथ चाहिए होता था, व्यस्तता की वजह से हम उन्हें टी. वी. के सामने बैठा दिया करते थे। अब आप बताएं कि उस वक्त उस उम्र में बच्चों को कितनी समझ थी। उन्हें टी. वी. में क्या दिखता होगा भला! बच्चे टी.वी. में रंगीन हलचल देख चुप रहते थे। बाद के दिनों में टी.वी. का स्थान मोबाइल फ़ोन ने ले लिया। पर, बच्चों का बचपन छिन गया। दोषी कौन? क्या हम आप नहीं? जरा सोचें।
बच्चों को एकाकीपन की आदत लग गई। उन्होंने अपनी दुनिया बना ली। अपने बनाए हुए कोकून में रहने लगे। कौन दोषी है? निःसंदेह हम ! मजबूरी कहें, जरूरत कहें, आप जो भी कह लें, गलती अगर परवरिश में हुई है तो हमें माननी होगी। हमने आपराधिक कृत्य किया है। हमें तो इसकी सजा मिलनी चाहिए। टी.वी. या सोशल मीडिया में हमने अपने आप को इतना मशगूल कर लिया है कि परिवार और बच्चों के लिए हमारे पास वक्त ही नहीं रहा।
अरे, बच्चों का चरित्र तो पानी की तरह है। बिल्कुल निर्मल और पाक साफ। जिस तरह पानी अपना रास्ता ढूंढ लेती है, बच्चों ने भी ढूंढ लिया। फिर तकलीफ क्यों? एक दूसरे पर दोषारोपण क्यों? आज जब वे बड़े हो गए तो एकाकीपन, मोबाइल में लिप्त रहना, व्यवहार में आक्रामकता एवं उसमें निरंतरता का अभाव उनके व्यवहार का अभिन्न अंग बन गया है। यह एक प्रकार का मनोविकार है। आप इसके लिए मनोचिकित्सक के पास जाना चाहते हैं। जाना चाहिए भी। पर, ध्यान रखें यह कोई बीमारी नहीं है कि दवा लिया और बीमारी छूमंतर। बच्चे मनोरोगी नहीं हैं। इसका इलाज मनोचिकित्सकों के पास भी नहीं है। उसने जो पढ़ा है एवं विभिन्न मनोचिकित्सक के द्वारा किए गए प्रयोगों के आधार पर आपको राह बता सकता है। पर, चलना तो आपको ही है।
अब भी वक्त नही गुजरा है। बच्चों को समय दें, उनके साथ समय बिताएं। उनके दोस्त बनें। हम लोगों ने अपने बड़ों को अक्सर यह करते सुना था कि जब बच्चों के पैर बड़ों के जूते में समाने लगे या बच्चे आपके कंधे के करीब आने लगे तो उनके साथ आप दोस्ती कर लें। बच्चों के जब आप दोस्त बनेंगे तब आप उनके व्यवहार में फर्क महसूस करेंगे। मैं पुनः दोहरा रहा हूं। आपके बच्चे मनोरोगी नहीं हैं, ना ही वो बीमार हैं। अरे बीमार तो हम आप हैं।उन्हें न तो मनोचिकित्सक की जरूरत है, न ही मनोचिकित्सक के दवा की और न ही उन्हें जरूरत है मनोवैज्ञानिक की। उन्हें तो बस जरूरत है दोस्त रूपी माँ-बाप की। उन्हें अपने बचपन को भरपूर जीने दें। आप बच्चों के लिए एक बेहतरीन दोस्त बनें। बच्चे अपनी तमाम बातें यहाँ तक कि अपनी अतरंगता भी आपसे शेयर करेंगे। क्यों मुसीबत के समय वो दूसरों का कंधा इस्तेमाल करें, जब आप मौजूद हैं। मदद करें एक दोस्त के रूप में। आप पाएंगे आपके बच्चे कभी आपसे अलग नहीं होंगे।
संयुक्त परिवार के बिखराव ने तो वैसे भी काफी कुछ छीन लिया है। अब तो जो कुछ भी बचा है उसे सम्हाल कर रखने की जिम्मेदारी हम पर आ पड़ी है। बखूबी हम सब मिलकर निभाएं इस जिम्मेदारी को वरना हम आने वाली पीढ़ी को क्या जवाब देंगे?