एक फिल्म आई थी, संजू ! इस फिल्म में एक बात सुनील दत्त ने बार – बार अपने बेटे को बताई कि वो मुसीबत में कैसे अपने उस्ताद को याद किया करते थे। बड़ा ही मजेदार वाकया है। वो मेरी जिंदगी का एक अहम मोड़ था। दरअसल यह हिन्दी फिल्म का एक गीत हुआ करता था। फिल्म के आखिरी हिस्से में उस्ताद नंबर तीन का गीत ” कुछ तो लोग कहेंगे” मुझे लगभग 27 साल पीछे ले गया। मैं उस दिन को याद कर आज भी emotional हो जाता हूं। कभी कभी तो यकीन नही होता है। मैं सोचने लगता हूं। क्या वाकई में मेरे साथ ऐसा कुछ हुआ था ! कोई खून का रिश्ता नही। दिल्ली जाने से पहले कोई मुलाकात नही। फिर भी, जो एक हाथ बढ कर आया उस अनुभूति को शब्दों में बयां नही किया जा सकता है।
बात १९९ ४ की है। मैं दिल्ली में रहकर Delhi University , Main Campus से Law की पढ़ाई कर रहा था। अचानक ऐसा क्या हुआ कि मुझे लगा कि शायद अब मैं दिल्ली में रह कर अपनी पढ़ाई जारी नहीं रख सकता हूं। पता नही अचानक से क्या हुआ, मैंने दिल्ली छोड़ने का फैसला कर लिया। मुझे लगा कि मैं दिल्ली जिस उद्देश्य को लेकर आया था, शायद वो पुरा नही हो रहा है। मेरा लक्ष्य law करना नहीं था। कुछ नहीं कर पाने की स्थिति में आगे क्या होगा! यह ख्याल आते ही मैं विचलित हो जाता था।
दिल्ली प्रवास के दौरान ही वहां मेरी मित्रता एक बिहार के लड़के से हुई। अनुपम ! जी हां यही तो वो नाम था।कैसे भूल सकता हूं इस नाम को भला। वैसे भी उसका व्यक्तित्व भूलने वाला नही था। सौम्य सा चेहरा साथ में हमेशा हल्की सी मुस्कान लिए हुए बरबस हर किसी को अपनी ओर आकर्षित कर लेता था। मुझे अच्छी तरह से याद है वो दिन। मैं दिल्ली छोड़ कर न जाऊं उसके लिए उसने बड़े जतन किए। Camp area के मेन रोड पर हम दोनों , मेरे पटना लौटने के पहले की रात लगभग दो बजे तक बैठे रहे। उसने मुझे काफी मनाया पर, मैंने तो लौटने का मन बना लिया था। उसने मुझे यहां तक कहा अगर पैसे की दिक्कत हो तो मैं हूं ना। बस तुम रूक जाओ। पर, मेरी नियति तो मुझे कहीं और ले जाने के लिए तैयार खड़ी थी। मैं तो बस निमित्त मात्र था।
वो दिन और उस रात को भला मैं कैसे भूल सकता हूं। उस रात उसने मुझे उस्ताद नंबर तीन का वही गीत “कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना” सुना कर विदा किया था।
मनु कहिन