Manu Kahin

कोलकात्ता डायरी, गतांक से आगे – टीपू सुलतान शाही मस्ज़िद

टीपू सुलतान शाही मस्ज़िद।इसे टीपू सुलतान की मस्ज़िद भी कहा जाता है। कोलकात्ता की हृदय स्थली धर्मतल्ला में स्थित है। धर्मतल्ला इलाके से आप गुजरेंगे तो बरबस ही आपका सामना इस खुबसूरत से मस्ज़िद से होगा। इसके बने हुए लगभग 180 साल से अधिक हो गए पर, इसका सौंदर्य आज़ भी बरक़रार है।

टीपू सुलतान की मस्ज़िद और वह भी कोलकात्ता में ! एक कौतूहल का विषय है । एक स्वाभाविक सा सवाल मन में उठ खड़ा होता है।जिन्होंने भी थोड़ा बहुत इतिहास पढ़ा है , वे जानते हैं टीपू सुलतान को।वे जानते हैं टीपू सुलतान मैसूर का शासक था।

सेरिंगपटटनम उसकी राजधानी हुआ करती थी। आज़ कोलकात्ता डायरी के अपने इस संस्करण में हम जानेंगे टीपू सुलतान शाही मस्ज़िद के बारे में और साथ ही साथ यह भी जानेंगे कि किन परिस्थितियों में टीपू सुलतान शाही मस्ज़िद का निर्माण मैसूर से कोसों दूर कोलकात्ता में हुआ। टीपू सुलतान मस्ज़िद वास्तु कला का एक बेहतरीन नमूना है। इस्लाम और मुगलिया शैली की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का नायाब हिस्सा है।

सन् 1842 में टीपू सुलतान के ग्यारहवें और सबसे छोटे बेटे प्रिंस ग़ुलाम मोहम्मद ने जो ख़ुद एक वास्तुशिल्पी था, इसका निर्माण करवाया था। ऐसा कहा जाता है कि सन् 1835 में प्रिंस ग़ुलाम मोहम्मद ने इसी तरह की एक और मस्ज़िद का निर्माण कोलकात्ता शहर के टाॅलीगंज में करवाया था।

टीपू सुलतान शाही मस्ज़िद में कुल 16 गुंबज और चार मीनारें हैं। इस मस्ज़िद में एक साथ 1000 लोगों के नमाज़ पढ़ने की व्यवस्था है। मीनारों का निर्माण इस प्रकार से करवाया गया है कि मुअज्जिन के नमाज़ अदा करने के लिए दी जाने वाली आवाज़ आस-पास के एरिया में स्पष्ट सुनाई दे सके।

अब हम आपको बताते हैं , आखिर क्यों टीपू सुलतान शाही मस्ज़िद कोलकात्ता में अस्तित्व में आया। दरअसल, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने शुरुआत में टीपू सुल्तान से व्यापार करने की सुविधा चाहा। कालांतर में उसकी नियत टीपू के साम्राज्य को अपने अधीन करने की रही। इसी रणनीति के तहत् उसने टीपू के खिलाफ़ युद्ध छेड़ दिया।

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और टीपू सुलतान की सेना के बीच लगातार युद्ध होता रहा। 1799 के युद्ध में, युद्ध के दौरान युद्ध के मैदान में ही टीपू सुलतान की मौत हो गई थी। टीपू सुलतान के मरने के लगभग छः वर्षों के बाद ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने उसके पुरे परिवार को मैसूर से निर्वासित कर तब का कलकत्ता ( आज़ का कोलकात्ता) भेज दिया था।

कोलकात्ता आने के वक़्त प्रिंस ग़ुलाम मोहम्मद की उम्र बहुत ही कम थी। लोगों का ऐसा मानना है कि वह एक बहुमुखी प्रतिभा संपन्न व्यक्ति था और कोलकात्ता में स्थानीय तौर वह बहुत सारी लोक कल्याणकारी योजनाओं से संबद्ध था। सड़कों और भवनों आदि के मेनटेनेंस के लिए बनाई गई समितियों में भी वह शामिल था ।

मनु कहिन
25/07/2021

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