Manu Kahin

त हम कुंवारे रहें – नाटक समीक्षा

पटना का कालिदास रंगालय। रंगमंच के कलाकारों के बीच दिल्ली के मंडी हाउस सी महत्ता। रंगमंच से जुड़े कलाकारों की ख्वाहिश कभी एक मौका तो मिले इस मंच पर अपनी प्रतिभा को दिखाने का। अलबत्ता जो नहीं जानते हैं, उनके लिए एक पुराना सा बड़ी मुश्किल से अपनी इज़्ज़त बचाता हुआ एक प्रेक्षागृह। ना मालूम कितने कलाकार यहां से निकल पुरे देश में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रहे हैं। कोई एक नाम हो तो जिक्र बनता है।पर, यहां तो लंबी फेहरिस्त है। सिलसिला बदस्तूर जारी है।


खैर! मौका था बहुचर्चित और लब्धप्रतिष्ठित संस्था सूत्रधार के कलाकारों के द्वारा और लब्धप्रतिष्ठित और बहु आयामी लेखक श्री सतीश चन्द्र मिश्र की रचना पर आधारित नाटक ‘ त हम कुंवारे रहें ‘ के मंचन का।


नाटक का निर्देशन नीरज ने, जो खुद रंगमंच की दुनिया के एक बेहतरीन कलाकार हैं , किया था। लगभग एक घंटे से कुछ अधिक तक चलने वाला नाटक मेरे लिए यादगार रहा। सूत्रधार के सचिव श्री नवाब आलम साहब के निमंत्रण पर मैं वहां पहुंचा था। सोचा था कि दर्शक दीर्घा में incognito बैठकर बड़े ही इत्मीनान से नाटक देखूंगा। पर सोचा हुआ कहां हो पाता है भला।

प्रेक्षागृह में घुसते ही नवाब साहब और नीरज ने देख लिया और सबसे आगे की सीट पर बिठा दिया। यहां तक तो सब ठीक ठाक था पर आगे ? उन्होंने तो मंच पर बुलाकर तमाम औपचारिकताएं निभाईं। औपचारिकताएं! मुझे थोड़ा संकोची बना देती हैं। अभी शायद मैं इस किरदार में अपने आप को नहीं ढाल पाया हूं। यह मेरा अपना व्यक्तिगत विचार है।

खैर? हम बातें कर रहे थे ‘ त हम कुंवारे रहें ‘ की।

एक दिव्यांग नवयुवक ज्ञान गुण सागर प्रसाद जिसकी शादी दहेज़ की वज़ह से नहीं हो रही है। उसके बापू को बड़ा दहेज़ चाहिए। रकम भी उसने अच्छी खासी सोच रखी है। हालांकि ज्ञान गुण सागर प्रसाद का दिव्यांग होना भी इसमें आड़े आ रहा है। दिव्यांग ज्ञान गुण सागर प्रसाद के किरदार को निभाया था दीपक ने। अपनी भूमिका में जान डाल दी थी उसने। ऐसा लगा हम नाटक नहीं देख रहे हैं।हम सिर्फ और सिर्फ दीपक को अभिनय करते हुए देख रहे हैं। अपनी भूमिका को जिस जीवंत तरीके से उसने निभाई निश्चय ही कल का बड़ा कलाकार है वो। एक नवयुवक जिसकी शादी किसी कारण से नहीं हो रही है। बड़े भाई की शादी हो चुकी है।

इस पीड़ा को कितनी खुबसूरती और भावपूर्ण अभिव्यक्ति के साथ दीपक ने निभाया। नाटक का वह दृश्य जब वो अपनी बड़े भाई की पत्नी की रूकसदी कराने भाई के ससुराल पहुंचता है। क्या अभिनय किया था उसने। हम सभी खो से गए थे। डायलॉग संप्रेषण के साथ ही साथ चेहरे के भावों के उतार चढ़ाव भी देखने लायक थे। हालांकि अन्य कलाकारों ने भी अपने अपने किरदार के साथ पुरा पुरा न्याय किया था पर दीपक की बात ही कुछ और थी। आज़ ऐसा लगा मानों आज़ दीपक के अलावे और कुछ नहीं।नीरज को भी इसका श्रेय देना होगा कि उसने अपने कलाकारों से बेहतरीन काम लिया।

यह कहानी रुपहले पर्दे पर नहीं दिखाई जा रही थी। रुपहले पर्दे पर जहां रीटेक और कट का दौर चलता ही रहता है। आश्वस्त होने के बाद ही उसे अंतिम रूप दिया जाता है। दर्शकों की जीवंत प्रतिक्रियाएं जहां आप नहीं झेलते हैं। पर, यहां तो कोई रीटेक नहीं, कोई कट नहीं। दर्शकों से आप सीधे संवाद करते हैं। थियेटर की तो बात ही कुछ और है। सब कुछ दिखता है। सफलता असफलता सभी आपके समक्ष होते हैं।


खैर! सूत्रधार की एक बेहतरीन पेशकश ‘ त हम कुंवारे रहें ‘

मनीश वर्मा ‘मनु’

Share this article:
you may also like