हमारे पड़ोस में शर्मा जी रहते हैं। शर्मा जी अभी अभी हाल में ही यहां रहने आए हैं। जयपुर से ट्रांसफर हो कर आए हैं। परिवार में पत्नी के अलावा एक प्यारी सी बच्ची श्रेया है। कल श्रेया का जन्मदिन था। पांच साल की हो गई है अब वो। सुबह से ही सोसायटी के कम्यूनिटी हॉल में श्रेया के जन्मदिन मनाने की तैयारियां चल रही थी।
जहां एक ओर हलवाई खाना बनाने की तैयारियां कर रहे थे तो दूसरी ओर मजदूरों का एक दल पंडाल बनाने और उसे सजाने की तैयारियों में लगा हुआ था। रंग बिरंगे कपड़ों और फूलों से गेट बनाया जा रहा था। मंच पर केक काटा जाना है तो उसके लिए भी तैयारियां चल रही थी। एक गोल टेबल मंच पर सजा कर रखा था, संभवतः केक कटिंग का कार्यक्रम वहीं पर होना था। मंच के सामने वाले हिस्से में कुछ कुर्सियां लगाई गई थी। एक तरफ डांस फ्लोर बनाया गया था तो दूसरी तरफ आठ दस गोल टेबल और उसके इर्दगिर्द सजा कर कुर्सियां रखी गई थी ताकि पार्टी में आए हुए अतिथि गण खाने के साथ ही साथ मंच पर हो रहे कार्यक्रम और डांस फ्लोर पर डी जे की धुन पर थिरकते हुए बच्चों को देख सकें।
शर्मा जी सुबह से ही ठेकेदार को निर्देश देते हुए दिखाई दे रहे थे। सब कुछ ठेकेदार को समझा देने के बाद भी उन्हें चैन कहां था। आखिर, उनकी प्यारी बेटी श्रेया का जन्मदिन जो था। कहीं कुछ चूक ना रह जाए इसलिए वो सुबह से ही मुस्तैद थे। कभी हलवाई को निर्देश देते, कभी ठेकेदार को कुछ समझा जाते तो कभी पंडाल की सजावट में लगे मजदूरों को कुछ निर्देश देते।
शाम हुई । तय समय पर हॉल में लोगों का आना शुरू हो गया। दिल्ली की जोरदार ठंडी भी बेअसर साबित हो रही थी। तय समय पर हॉल में केक काटा गया। गाने बजाए गए। सभी ने श्रेया को लंबी उम्र की शुभकामनाएं दी।
श्रेया तो बस अपने उम्र के बच्चे और लोगों से जन्मदिन पर मिले गिफ्ट्स के घिरी हुई थी। श्रेया को लोगों का आना और जन्मदिन पर गिफ्ट्स मिलना अच्छा लग रहा था। उसे कहीं ना कहीं इस बात का अहसास हो रहा था कि आज की विशिष्ट अतिथि वो ही है।
छोटे छोटे बच्चे अब डांस फ्लोर पर डीजे की जोरदार धून पर ठंडी को बेअसर करते हुए अपनी पुरी क्षमता से थिरक रहे थे। भोजपुरी, पंजाबी और हिन्दी गानों की पैरोडी पर पूरा का पूरा माहौल ही बिल्कुल थिरक रहा था। बच्चों के साथ ही साथ बड़े भी अब, क्या महिलाएं और क्या पुरुष, सभी डांस फ्लोर पर अपनी अपनी प्रतिभा दिखा रहे थे। बेचारे बच्चे अब थोड़ा किनारे हो गए थे।
धीरे धीरे रात गहराने लगी थी। ठंड ने भी अपना असर अब दिखाना शुरू कर दिया था। अब धीरे धीरे खाना खाकर लोग अपने अपने घरों की ओर चल पड़े थे। सरकारी नियमों के अनुसार दस बजे तक डी जे को भी बंद हो जाना था।
सभी लोग जा चुके थे। अब फिर से उन्हीं मजदूरों की बारी थी जिन्होंने सुबह से ही मेहनत कर पंडाल को सजाया था। शाम होते होते कम्यूनिटी हॉल उन मजदूरों की मेहनत से बहुत ही खूबसूरत दिखने लगा था। मजदूरों ने अब पंडाल और उसके सजावट में लगे सामानों को खोलना शुरू कर दिया था। हलवाइयों ने अपना अपना सामान समेट लिया था। सुबह एक गाड़ी आई थी सामान को लेकर। फिर से एक गाड़ी आई ठेकेदार ने सारा सामान समेट लिया और चल दिया कहीं और। आखिर कल उसे कहीं और की शाम गुलज़ार करनी है। किसी और श्रेया का जन्मदिन जो मनाना जाना है। सिर्फ जन्मदिन ही क्यों कहें, शादी हो या कोई भी पार्टी अमूमन यही तो होता है। सुबह से शाम तक तैयारियां ही तैयारियां और कार्यक्रम के खत्म होते ही सब कुछ समेटे जाने की तैयारी। बस यही तो जिंदगी है मजदूरों की।
सिर्फ मजदूरों की क्यों कहें हमारी जिंदगी भी तो कुछ ऐसी ही है। सुबह होती है, फिर शाम होती है और आखिर में रात तो आनी ही आनी है। एक चक्र है जो चलता ही रहता है। हम भले ही उसमें अपने मुताबिक कुछ ढूंढते हैं, पर इससे वो जो चक्र चल रहा है शायद ही उसपर कुछ फर्क पड़े।
” सुब्ह होती है शाम होती है
उम्र यूँही तमाम होती है “
इस संदर्भ मे मोहम्मद रफी की गायी एक ग़ज़ल की याद भी आ रही है:-
” कल चमन था आज एक सहरा हुआ। देखते ही देखते यह क्या हुआ “