कोलकाता में जो घटना घटी वो मानवता को शर्मसार करती है। सोच कर ही मन पता नहीं कैसा हो जाता है। एक अजीब सी फीलिंग हो रही है। एक ही साथ कई तरह के भाव उत्पन्न हो रहे हैं। क्षोभ, दुःख, निराशा, ग्लानि और क्रोध क्या कहें समझ में नहीं आ रहा है। लगता है मानवीय संवेदनाएं ख़त्म हो चुकी हैं। मन उद्वेलित है। बहुत कुछ कहने को मन कर रहा है, पर कहीं ना कहीं बंदिशें हैं, जिनकी वजह से अपने जज्बातों को काबू में रखना पड़ रहा है। काश! कुछ बातें जो आपको इस हालत में ले आएं, आप उसे ना सुन सकते और ना ही देख सकते हैं।
मृतक लेडी डाक्टर की मां को न्यूज़ चैनलों पर सुनें और जिस डॉक्टर ने पोस्टमार्टम किया है उसने भी न्यूज़ चैनलों पर जो कुछ कहा वो घटना की भयावहता और पाशविकता को दर्शाता है। क्या कोई व्यक्ति इतना क्रूर भी हो सकता है?
एक व्यक्ति की गिरफ़्तारी हुई है। न्यूज़ चैनलों पर प्रसारित हो रहा था कि वह कह रहा है – मुझे फांसी दे दी जाए। मैंने गुनाह किया है। चलिए उसने अपना अपराध कबूल कर लिया, पर मेरे हलक से एक बात नहीं उतर रही है कि कोई एक व्यक्ति कैसे इस तरह का क्रूरता पूर्ण हरकत कर सकता है भला। कई और लोगों की भी भूमिका हो सकती है जिससे इन्कार नहीं किया जा सकता है।
जानवरों में भी संवेदनाएं होती हैं। वो भी इस तरह के कुकृत्य नहीं करते हैं। इस घटना को इतने विभत्स तरीके से अंजाम दिया गया है जो शायद एक आम मनुष्य तो नहीं ही कर सकता है। यह काम कोई नरपिशाच ही कर सकता है।
आप बस कल्पना करें। शायद नहीं कर पाएं। कोलकाता की उस घटना का ख्याल ही आपको विचलित कर देता है। कानून की शब्दावली में रेप और मर्डर एक जघन्य अपराध है। कानून अपने तरीके से इसकी सजा तय करेगा, पर क्या सजा मात्र सुना देने से इस तरह के अपराध खत्म हो जाते हैं? काश! ऐसा हो पाता। पर नहीं, बिल्कुल नहीं। अगर ऐसा होता तो निर्भया मामले के बाद शायद फिर से इस प्रकार की घटनाएं नहीं घटती। यहां निर्भया कांड की पुनरावृत्ति नहीं हुई है बल्कि उससे भी ज्यादा दुखदाई घटना घटी है।
असहज हो जाता हूँ। ऐसा लगता है जैसे मैं जड़ हो गया हूँ। आंख और कान पथरा से गए हैं। सोचने को मजबूर हूँ क्या वाकई हम इंसान हैं? सुरक्षित माने जाने वाली जगह पर एक डॉक्टर के साथ इस तरह की घटना घट जाती है, यह बहुत ही अफसोस और दुःख की बात तो है ही पर यह पूरी मानवता जाति को शर्मसार करती है।
एक दूसरे पर ठीकरा फोड़ा जा रहा है। बस आरोप और प्रत्यारोप का दौर जारी है। अपने आप को उस जगह पर रखें तब शायद आप उस दर्द को महसूस कर पाएंगे। सिर्फ एक जिंदगी ही नहीं जाती है। साथ ही साथ आपको दे जाती है ज़िंदगी भर का दर्द। आपके सपनों की मौत। एक अविश्वास का माहौल, ताजिंदगी आपका पीछा नहीं छोड़ती है।
हम सरकार को क्यों दोष दें ? हम सभी दोषी हैं। इतना हम बंट चुके हैं कि अब हमारा ज़मीर ही साथ हमारा नहीं दे रहा है। राजनीतिक बयानबाज़ी होती है उसका एक अलग ही स्थान है, पर हाँ इस तरह की घटना के घटित होने के पश्चात दोषियों को ढूंढ निकाल कर स्पीडी ट्रायल करवा कर उन्हें ऐसी सजा देनी चाहिए कि इस तरह की मानसिकता वाले लोगों की रूह कांप जाए। सामाजिक स्तर पर उनके परिवार का सामाजिक बहिष्कार भी एक माकूल तरीका हो सकता है। कुछ लोगों की यहां राय हो सकती है कि किसी एक व्यक्ति के गुनाह की सज़ा उसका परिवार क्यों भुगते? पर, जैसा कि मैंने उपर कहा – सजा एक नज़ीर बननी चाहिए।
हम भी दोषी हैं। हमारा समाज दोषी है। हम ऐसे नरपिशाच को पहचान नहीं पाते हैं।
अभी – अभी दो तीन दिन पहले की ही तो बात है। कोलकात्ता में रहने वाली एक बहन ने फेसबुक पर शेयर किया था “महिलाओं के लिए कोलकात्ता भारत के सबसे ज़्यादा सुरक्षित शहरों में एक है ” । मेरा भी कुछ ऐसा ही ख्याल था। लगभग चार सालों के कोलकात्ता आते जाते हुए मुझे भी यह शहर महिलाओं के लिए एक सुरक्षित शहर लगने लगा था। एक धक्का सा लगा है मुझे।
इंसानियत की खातिर हम सभी चाहेंगे की जो भी लोग कोलकाता की इस घटना में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में शामिल हैं उन्हें बख़्शा नहीं जाए। सभी बातों से परे जाकर उन्हें ऐसी सजा दी जाए ताकि भविष्य में ऐसी घटना की पुनरावृत्ति न हो पाए।
मनीष वर्मा ‘मनु‘