उत्तरकाशी के सिलकयारा टनल में जहां अचानक से 41 मजदूर जो वहां काम कर रहे थे टनल में फंस गए, पल भर में ही उनकी जिंदगी ने यू टर्न ले लिया। बाहरी दुनिया से उनका संपर्क बिल्कुल से ही टूट गया। अंदर घुप्प अंधेरा के सिवाय कुछ नहीं। ना उनकी आवाज बाहर आ रही थी और ना ही बाहर की आवाज उन्हें सुनाई दे रही थी।
जरा कल्पना करें, आप लिफ्ट के अंदर हैं और किसी तकनीकी वजह से अचानक लिफ्ट बीच में रूक जाती है। कुछ पलों में ही ऐसा लगता है मानों साक्षात मौत से आमना सामना हो गया हो। दिल की धड़कनें तेज हो जाती हैं। रक्तचाप अनियंत्रित हो जाता है। आप उन पलों को याद कर सिहर उठते हैं। उन मजदूरों के बारे में बस थोड़ा कल्पना करें कि कैसे अचानक से पर्दा गिर जाता है । ना ही उन्हें किसी की खबर ना ही बाहर वालों को उनकी खबर। पल भर में ही उनकी दुनिया बदल सी गई।
शुरूआती कुछ घंटे तो यूं ही बीते। भूख प्यास से बेहाल मजदूर। एक दूसरे की हौसला अफजाई के अलावा उनके पास कोई रास्ता नहीं। वो तो जब बाद में छोटी सी व्यास वाली पाइप जब उन तक पहुंचाई गई, उस पाइप के जरिए उन्हें जीवन जीने के लिए ज़रूरी सामान मुहैया कराया गया और उनसे बातचीत की गई तब उनमें आशा की किरण जगी।
पर दिल्ली अभी बहुत दूर थी। लगभग 60-65 मीटर अंदर टनल में फंसे मजदूर को बाहर निकाला जाना दुष्कर काम था। निरंतर कुछ ना कुछ बाधाएं आ रही थीं। कभी कभी ऐसा लगता था कि कुछ भी हो सकता है। जैसे जैसे दिन बीतते जा रहे थे कहीं ना कहीं एक अनहोनी की आशंका बनी हुई थी। बहुत सी सरकारी एजेंसियां एक दूसरे के साथ समन्वय बिठाते हुए टनल में फंसे मजदूरों को बाहर निकालने के काम में लगी हुई थी। हम कुछ दूर आगे बढ़ते फिर अचानक से उम्मीद टूट जाया करती। कभी मशीन काम करना बंद कर देती तो कभी उसका कोई अहम पार्ट पुर्जा टूट जाता। बड़ी ही लाचारी हो जाती थी। जब हम टनल में लगभग पचास मीटर अंदर पहुंचे तब अचानक से मलबा गिरने की वजह से ऐसा लगा अब कुछ नहीं हो सकता है।
अब जिंदगी जीने की असली जंग यहां से शुरू होती है। लगभग पंद्रह दिन बीत चुके थे। बाहर मजदूरों के परिजन भी अब थोड़े निराश होने लगे थे। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री समेत तमाम विशेषज्ञ अपने अपने स्तर पर लगे हुए थे। आस्ट्रेलिया से एक खदान विशेषज्ञ ऑरनेल्ड डिक्स भी मजदूरों को खदान से बाहर निकाल लाने के लिए अपनी सेवाएं देने पहुंच गए थे। इन सब के बावजूद कहीं ना कहीं हम हताश हो रहे थे। मशीनों ने आगे काम करना बंद कर दिया था। हालांकि, विशेषज्ञ तमाम योजनाओं – प्लान ए , प्लान बी, प्लान सी आदि आदि के साथ मजदूरों को किसी भी तरह बाहर निकालने में जुटे हुए थे।
अब आगे लगभग 12 मीटर लंबा रास्ता ही बचा था जिसे खोलना था। उसी वक्त किसी को रैट होल माइनिंग और रैट होल माइनर की याद आई। यह वो तकनीक है और ये वो लोग हैं जो अपने हाथों से छोटे छोटे औजारों से जमीन के अंदर खोदते हुए आगे बढ़ते हैं और रास्ता बनाते हैं। यह तकनीक मुख्यत: मेघालय के कोयला खदानों में काम में लाई जाती रही थी, पर इसमें काम करने वाले मजदूरों में होने वाले कैजुअल्टी को देखते हुए सरकार ने इसे गैरकानूनी घोषित कर दिया था। खैर! अब यही तकनीक यहां मजदूरों को बचाने के लिए काम में लाई गई और इसके लिए दिल्ली से रैट होल माइनर्स की टीम बुलाई गई। इस टीम ने लगातार चौबीस घंटे काम खुदाई करते हुए मजदूरों तक पहुंचने में सफलता पाई।
आगे तो अब बस औपचारिकता ही बची थी। आपदा प्रबंधन वालों ने एक एक करके सभी 41 मजदूरों को सकुशल बाहर निकालने में सफलता प्राप्त की। बाहर का नजारा तो बिल्कुल ही जज़्बात से लबरेज़ था। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री स्वयं वहां मौजूद थे। सभी के परिजन वहां मौजूद थे।
वैसे भी आमतौर पर हम भारतीय बड़े ही जज़्बाती किस्म के इंसान हैं। हम अपने जज्बातों को, अपने भावनाओं को संतुलित करना नहीं जानते हैं, इसलिए हमारी प्रतिक्रियाएं बड़ी त्वरित होती हैं।
खैर! सत्रह दिनों की मेहनत, और लोगों की प्रार्थनाएं काम आईं और खदान से मजदूर सकुशल वापस आए।
प्राकृतिक आपदाएं आपको बता कर नहीं आती हैं। वैसे भी हम लोगों ने प्रकृति के साथ कुछ ज्यादा ही छेड़छाड़ कर दिया है। प्रकृति से छेड़छाड़ हम बंद करें और उसे सहेजने की कोशिश करें। खुद भी जागरूक बने और अपने आसपास के लोगों को भी जागरूक बनाएं आज जरूरत आ पड़ी है सुरक्षा मानकों का शिद्दत से पालन करने का ताकि फिर से ऐसी स्थिति ना आए।