आईए आपको लेकर चलते हैं लखनऊ शहर के बिबियापुर इलाके में गोमती नदी के किनारे पर, जहां एक बहुत ही खूबसूरत कोठी है, दिलकुशा कोठी। कहते हैं इस ऐतिहासिक शहर लखनऊ की खूबसूरत स्मारकों में एक है यह कोठी। आज जब सिर्फ इसके भग्नावशेष बचे हैं, उन भग्नावशेषों को देखकर ही आप कह सकते हैं कि अपने दिनों में कितनी खूबसूरत रही होगी यह कोठी।
कहते हैं ब्रिटिश अभिनेत्री मैरी लिनली टेलर इस कोठी की खूबसूरती से इतनी प्रभावित हुईं थीं कि सियोल में बने अपने घर का नाम उन्होंने दिलकुशा रखा था। उन्होंने कहा था, “भारत में उस पल से जब मैंने पहली बार दिलकुशा, दिल की खुशी का महल देखा था, मैंने इस पल का सपना देखा था जब मैं अपने घर को ‘दिलकुशा’ नाम दूंगी” ।
इस भव्य कोठी का निर्माण नवाब सआदत अली खान (1797-1814 ई०) के शासन काल में परम्परागत इंग्लिश बरोक शैली में लखौरी ईटों से किया गया तथा इस पर चूने के मसाले से पलस्तर तथा अलंकरण किया गया। लखौरी, बादशाही या फिर ककैया ईंटे, वो ईंटें होती थीं जो पतली सपाट लाल रंग की पकी हुई मिट्टी की ईंटें थीं जो मुगल काल के दौरान बहुत लोकप्रिय थीं और इनका उपयोग भवन निर्माण विशेष रूप से मुगल वास्तुकला में शाहजहां काल से लेकर 20 वीं सदी की शुरुआत में तब तक होता रहा जब तक कि इन्हें और इनकी समकालीन नानकशाही ईंटों को ब्रिटिश राज के द्वारा घुम्मा ईंटों से प्रतिस्थापित नहीं कर दिया गया।
नवाब साहब के मित्र ब्रिटिश रेजीडेन्ट गोर अउजली ने दिलकुशा कोठी का प्रारूप तैयार किया था। इसकी डिजाईन में नार्थथमबरलैंड (इंग्लैण्ड) स्थित सीतन डेलावल हॉल की छाप मिलती है।
यह भवन अवध के नवाबों के लिए शिकारगाह के साथ ही साथ गर्मियों के लिए आरामगाह भी था। इस कोठी के कोने मीनारों से सुसज्जित थे, जिनमें घुमावदार सीढ़ियां बनी हुई थी । घुमावदार सीढ़ियों के साथ ही मुख्य प्रवेश द्वार तक पहुंचने के लिए भव्य सीढ़ियां निर्मित थी।
कालान्तर में नवाब नासिर-उद्-दीन हैदर (1827-37 ई0) ने अपनी रूचि के अनुरूप इस महल में परिवर्तन किये। उन्होंने इसके उत्तर पूर्वी दिशा में एक अन्य भव्य कोठी का निर्माण करवाया जिसके सिर्फ भग्नावशेष ही बचे हैं। इस कोठी का मुख्य भाग चित्ताकर्षक है। युरोपीय शैली में निर्मित इस भव्य भवन का निर्माण भी लखौरी ईंटों और चूने के मसालों से किया गया था तथा इसपर मोटे चूने का पलस्तर किया गया था।
कुछ लोगों का मानना है कि अपने शासन के शुरुआती सालों में नवाब वाजिद अली शाह ने इस भवन का निर्माण करवा कर अपनी पूरी सैन्य पलटनों के सैनिक अभ्यास हेतु मैदान को साफ करवाया था । अंग्रेजों ने उनके इस कार्य पर आपत्ति प्रकट किया तथा नवाब को अभ्यास पूर्ण रूप से बंद करने को कहा था। नवाब वाजिद अली शाह ने इसे नकार दिया था।
खैर! बात जो भी हो 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में इसकी प्रमुख भूमिका थी ।
ब्रिटिश फ़ौजों ने इस कोठी पर कब्जा कर इसे अपने मुख्यालय के रूप में प्रयोग किया। ब्रिटिश मेजर जनरल सर हेनरी हैवलॉक ने पेचिश से पीड़ित होने के बाद 24 नवम्बर 1857 को अपनी अंतिम सांसे इसी कोठी में ली। कालान्तर में यह भवन प्रयोग में न रहने से निर्जन और जर्जर हो गया है।
दिलकुशा स्मारक परिसर में दो समाधियां भी हैं। दोनों ही समाधियां ब्रिटिश सैन्य अधिकारियों की हैं। पहली समाधि अठारहवीं बंगाल नेटिव इन्फैन्ट्री रेजीमेन्ट के सैन्य अधिकारी लेफ्टिनेंट चार्ल्स कीथ डैशवुड की है जो लेफ्टिनेंट कर्नल ए०डब्ल्यू० डैशवुड के तृतीय पुत्र थे। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान क्रांतिकारियों के साथ हुये युद्ध में दिलकुशा कोठी में 22 नवम्बर, 1857 को 19 वर्ष की आयु में इनकी मृत्यु हुई थी।
दूसरी समाधि चौथी पंजाब राईफल्स के सैन्य अधिकारी लेफ्टिनेंट डब्ल्यू० पॉल की है जो प्रथम स्वंतत्रता संग्राम के दौरान मेजर जरनल सर कॉलिन कैम्पबेल, के०सी०बी० के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना की सहायता के लिये भेजी गयी सैन्य टुकड़ी एवं क्रांतिकारियों के बीच सिकन्दरबाग में हुऐ युद्ध में दिनांक 16 नवम्बर, 1857 को मारे गये थे। इस स्मृतिका का निर्माण चौथी पंजाब राइफल्स के उनके सहयोगी अधिकारियों द्वारा निर्मित किया गया था।
लखनऊ शहर नवाबों का शहर कहा जाता है। नवाबी यहां की आन बान और शान है। तहज़ीब, नफासत और नज़ाकत के क्या कहने! रोम रोम में बसा है। नवाबों ने यहां शासन करने के साथ ही साथ बहुत सारी खूबसूरत और नायाब भवनों का निर्माण किया। उनके बाद शायद ही उस तरह के भवनों का निर्माण यहां हुआ। सभी भवनों के स्थापत्य की अपनी एक अलग ही शैली हुआ करती थी।