बचपन से ही स्वच्छंद और विस्तृत आकाश में हवाई जहाज़ों का उड़ना, हम बच्चों के लिए एक कौतूहल का विषय हुआ करता था। उस वक़्त जहां तक मुझे याद है हम बच्चे अपने मां- पापा के साथ एयरोड्रम ( आज़ का एयरपोर्ट) जाया करते थे, हवाई जहाज़ों को उड़ते हुए और उतरते हुए देखने के लिए। तब टेक ऑफ और लैंडिंग के बारे में कुछ पता नहीं हुआ करता था। तब पटना एयरोड्रम से आज़ की जितनी फ्लाइट्स भी नहीं हुआ करती थीं। कुछ ही थीं जिनके बारे में उनके आने जाने का समय पता कर हम सभी जाया करते थे। एयरोड्रम जाना और उड़ते और उतरते हुए हवाई जहाज़ों को देखना एक सुखद अहसास हुआ करता था। बहुत सारे मिथकों से भरा पड़ा था हमारा हवाई जहाज़ के बारे में ज्ञान। हम जितने थे उससे ज़्यादा कहीं कहानियां थीं।भारतीय परिधान साड़ी पहनी हुई एयरहोस्टेस और पाइलट ऐसा लगता था मानो हममें से बिल्कुल अलग किसी और ग्रह के निवासी हों।
उस वक़्त एयरपोर्ट पर एक पक्के का मचान नुमा ऊंचा स्थान बना हुआ था जहां से हम सभी आसमान निहारा करते थे कि हवाई जहाज अब आया, अब आया! हर आवाज़ पर नजरें बरबस ही आसमान की ओर उठ जाया करती थीं। उस वक़्त एयरपोर्ट पर आज़ के जितना रोक टोक भी नही हुआ करती थी। टिकट लेकर प्रवेश तो बहुत बाद में आया। क्या दिन थे वो! काश ! कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन |
अब के बच्चे तो शायद रेल पर न चढ़े हों पर, हवाई जहाज़ पर चढ़ना उनके लिए आम बात है।
आज़ भी, जब उम्र अर्द्धशतक लगा चुकी है, एक गड़गड़ाहट के साथ हवाई जहाज़ को उड़ते हुए और उतरते हुए देखना एक अद्भुत, अविस्मरणीय पल होता है, जबकि कई मर्तबा हवाई जहाज़ पर चढ़ चुका हूं। हवाई जहाज़ पर चढ़ना अब कोई नई बात नही रही। बचपन की उन यादों को याद कर आज़ भी दिल कहीं और ही खो जाता है।
पर, क्या करें! दिल तो बच्चा है जी!
आइए हम सभी इसी बचपन के पल के साथ गोते लगाएं।
मनु कहिन