आइए लखनऊ के आस पास का सफर जारी रखते हुए आज हम आपको देवा शरीफ़ लेकर चलते हैं। यह लखनऊ से तकरीबन 25 – 26 किलोमीटर की दूरी पर उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले में स्थित है। यह जगह बहुत मशहूर है एक खास धर्मावलंबियों के साथ ही साथ अन्य धर्मों को मानने वालों के बीच भी।
देवा शरीफ़ दरअसल हिंदू मुस्लिम एकता के प्रतीक महान सूफी संत हाजी वारिस अली शाह की दरगाह है । यहां उत्तर प्रदेश की सरकार प्रत्येक वर्ष एक भव्य मेले का आयोजन करती है। मेले में अनेक धार्मिक और सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होते हैं । नामचीन और ख्याति प्राप्त कवियों और शायरों का जमावड़ा यहां होता है।
वारिस अली शाह भारत के प्रसिद्ध सूफी संत हुआ करते थे। इन्होंने वारसी सूफी संप्रदाय की स्थापना की थी। ये सूफीवाद के कादरिया संप्रदाय से जुड़े थे। उदारवादी दृष्टिकोण के शाह साहब अपने अनुयायियों को सूफीवाद का पालन करने की अनुमति देते हुए यह भी कहा करते थे कि इस्लाम स्वीकार करने की स्थिति तुम्हें अपना नाम नहीं बदलना पड़ेगा। यूरोप और पश्चिम देशों की यात्रा के दौरान इन्होंने बहुत सारे लोगों को अपने आध्यात्मिक संप्रदाय में शामिल किया।
लोगों का यह मानना है कि शाह साहब हजरत इमाम हुसैन साहब की 26 वीं पीढ़ी से ताल्लुक रखते थे। क्या छोटे क्या बड़े, बड़े-बड़े सरकारी हुक्मरान एवं जमींदार सभी उनके अनुयाई थे। उनके अनुयायियों में विभिन्न धर्मो के मानने वाले लोग भी थे। उनके कई शिष्य जो मुस्लिम और हिंदू दोनों ही होते थे, अपने नाम के साथ वारिसी या वारसी लगाते हैं जो दरअसल दक्षिण एशियाई मुसलमानों का एक उपनाम है।
शाह साहब ने अपने पिता कुर्बान अली शाह के पुण्यतिथि के अवसर पर देवा शरीफ़ में देवा मेले की शुरुआत की थी जो अक्टूबर- नवंबर महीने में लगता है। इस मेले में शामिल होने बड़ी संख्या में लोग काफ़ी दूर दूर से आते हैं, पर देवा शरीफ़ आने पर एक बात खल जाती है – इतनी मशहूर जगह और वहां तक पहुंचना थोड़ा मुश्किल। आप देवा शरीफ़ तक तो पहुंच जाते हैं, पर दरगाह तक जाने का रास्ता व्यावसायिक अतिक्रमण की वजह से काफी संकरा है। अपनी गाड़ी से वहां तक पहुंचना एक समस्या है कि कहां आप गाड़ी लगाएंगे। एक बार गाड़ी लेकर चले गए तो बाहर निकल पाना मुश्किल।
खैर! दरगाह की इमारत इतनी खूबसूरत कि कुछ देर तक तो आप बिल्कुल ही विस्मित होकर देखते ही रहते हैं। अंदर दो मजार है। एक मजार हाजी वारिस अली शाह की और दूसरी उनके वालिद कुर्बान अली शाह की है जिनका इंतक़ाल वारिस अली शाह जब छोटे थे तभी हो गया था। श्रद्धालु वहां मजार पर चादर चढ़ाते हैं और बतौर श्रद्धा सुमन गुलाब के फूलों की पंखुड़ियां अर्पित करते हैं।
दरगाह के दरवाजे पर एक पीतल की बड़ी मोटी सी एक प्लेट लगी है जो घंटी बजाने के काम आती है, संभवत: इसका इस्तेमाल यहां के लोग समय बताने के लिए किया करते हैं। दरगाह के भवन से लगता हुआ ही पीछे की ओर एक मस्जिद भी है जहां नमाज़ अदा की जाती है।
गंगा जमुना तहज़ीब हमेशा से हम भारतीयों की पहचान रही है। और वैसे भी हमने सभी को चाहे वो किसी भी धर्म अथवा समुदाय के हों, उन्हें अपने साथ लेकर चलने की कोशिश की है। इतिहास गवाह है, हम पर चाहे कितनी भी मुसीबतें आयीं हमने रिश्तों को निभाया है, उन्हें मजबूत बनाया है। यही तो हमारी पहचान है।
हिन्दू, मुस्लिम दोनों ही धर्मों के लोगों की आस्था का प्रतीक है देवा शरीफ़। इस दरगाह पर होली खेलने की परंपरा हाजी वारिस अली शाह के जमाने से ही शुरू हुई थी, जो आज भी कायम है. उस समय होली के दिन हाजी वारिस अली शाह बाबा के चाहने वाले गुलाल व गुलाब के फूल लेकर आते थे और उनके कदमो में रखकर होली खेलते थे। तभी से होली के दिन यहां कौमी एकता गेट से लोग नाचते गाते गाजे बाजे के साथ जुलूस निकालते हैं। कालांतर में लोगों ने हाजी वारिस अली शाह की पुण्यतिथि पर भी होली खेलना शुरू कर दिया है।