आइए आज आपको हम लिए चलते है सैर पर और थोड़ा घुमा लाते हैं लखनऊ की भूल भुलैया। जी हां! कभी नवाबों का शहर हुआ करता था लखनऊ, पर आज़ नवाब तो रहे नहीं उनकी यादें उनके द्वारा बनवाए गए इमारतों में शेष हैं। हम सभी लखनऊ के भूल भुलैया से परिचित हैं। हालांकि भूल भुलैया के नाम से केवल लोकप्रिय इस जगह का वास्तव में तो नाम है बड़ा इमामबाड़ा।
नवाब आसफ-उद्-दौला (1775-97 ई.) के द्वारा 1784-91 ई. के मध्य निर्मित यह भव्य संरचना बड़ा इमामबाड़ा आसफ-उद्-दौला के नाम से विख्यात है, जिसकी रूप-रेखा मुख्य वास्तुविद किफायतुल्ला द्वारा तैयार की गई थी।बड़ा इमामबाड़ा के नाम से प्रसिद्ध इस भव्य इमारत में नवाब आसफ-उद्-दौला, उनकी पत्नी शमसुन्निसा बेगम एवं मुख्य वास्तुविद किफायतुल्ला की कब्रें हैं।
इस स्मारक में तीन मेहराबों वाले दो प्रवेश-द्वार हैं, जिसके उत्तर में नौबतखाना, पश्चिम में खुबसूरत मीनारों वाली आसफी मस्जिद एवं पूरब में ‘शाही बावली ‘ है, जबकि इमामबाड़ा का मुख्य भवन दक्षिण में स्थित है।
इमामबाड़ा की मुख्य इमारत एक तीन मंजिला इमारत है जो एक ऊंचे चबूतरे पर निर्मित है। मुख्य इमारत का मुख भाग सात मेहराब-युक्त द्वारों से सज्जित है और इसमें विभिन्न कार्यों के लिए तीन कक्ष बने हैं। मुख्य कक्ष के दाहिनी तरफ चीनी कक्ष और बायीं तरफ ईरानी कक्ष स्थित है। बिना स्तम्भ के केन्द्रीय कक्ष की विशाल छत विश्व का एक अनोखा उदाहरण है जिसकी लम्बाई 49.71 मीटर तथा चौड़ाई 16.6 मीटर है, जबकि इसकी अधिकतम उंचाई 14.95 मीटर है। चूने के गारे व लाखौरी ईंटों से निर्मित इस मुख्य इमारत की अलंकृत मुंडेर छतरियों से सज्जित हैं, जिसके बाहरी सतह पर चूने के मसाले से अद्भुत अलंकरण किया गया है। इसका भीतरी भाग कीमती झाड़-फानूसों, ताजियों, अलम आदि धार्मिक चिन्हों से सुसज्जित है। इस इमारत के सबसे ऊपर अनेक छज्जों व 489 समान द्वारों वाले रास्तों से युक्त भूल भुलैया है जो यहां का मुख्य आकर्षण है। हालांकि वर्तमान में सभी दरवाजे नहीं खुले हुए हैं। दर्शकों के लिए कुछ ही दरवाजों को खुला रखा गया है।
भूल भुलैया के रास्ते एक रोमांच पैदा करते हैं। कम रोशनी में भूल भुलैया के रास्तों, उसके सीढ़ियों से गुजरना एक अलग ही अहसास, एक अलग ही अनुभूति है।
इमामबाड़ा का निर्माण धार्मिक मजलिसों और मुहर्रम के आयोजन हेतु कराया गया था जिसका तात्कालिक उद्देश्य 1784 ई. के विनाशकारी अकाल के दौरान आम जन को अकाल से राहत प्रदान करना था।
नौबत खाना, नक्कारखाना या फिर ड्रम हाउस बड़ा इमामबाड़ा के ठीक विपरीत दिशा में स्थित है। इसे 18वीं शताब्दी में नवाब आसफ-उद-दौला द्वारा बनाया गया था। अवधी वास्तुशिल्प को उजागर करते हुए इसका निर्माण ढोल बजाने वालों को समायोजित करने के उद्देश्य से किया गया था जो अपने नगाड़ों (ड्रम) को पीटकर घोषणा करते थे।
तहज़ीब, नफासत और नज़ाकत तो जैसे इस शहर के रोम रोम में बसा है। नगाड़ा वादकों की थाप अक्सर नवाबों के दरबार में किसी महत्वपूर्ण अतिथि के आगमन, दैनिक समय की घोषणा, या शोक, विशेष प्रार्थना आदि का संकेत देती थी।
बड़ा इमामबाड़ा परिसर की एक अन्य महत्वपूर्ण संरचना ‘ शाही बावली ‘ है, जहां साधारण मेहराब वाले एक ऊंचे दरवाजे के माध्यम से पहुंचा जा सकता है। मुख्य द्वार को पार करने के बाद, जलाशय में नीचे उतरने के लिए कई सीढ़ियां बनी हैं। अंदरुनी भाग में अवस्थित यह जलाशय अपने चारों ओर निर्मित बहु-कक्षी महल को ठंडा रखता था। इस महल का बड़ा हिस्सा पानी में डूबा रहता था। इस बावली का जल स्त्रोत गोमती नदी से जुड़ा हुआ था। वर्तमान में शहरीकरण के बढ़ते प्रभाव और विस्तार की वजह से गोमती नदी के साथ ही साथ शाही बावली की प्राकृतिक जल भराव क्षमता भी बाधित हो गई है।
हमें शायद इस बात का इल्म भी नहीं कि जाने और अनजाने में हम अपनी विरासत और संस्कृति के साथ क्या कर रहे हैं। किसी राष्ट्र की समृद्धि का आधार उसके अपने लोगों के द्वारा पीढ़ियों से संजोए गए विरासत और उसकी संस्कृति के अलावा शायद कुछ नहीं।